तारंगा तीर्थ वर्णन

गुजरात में पहाड़ पर स्थित तीर्थों में तारंगा विशिष्ट तीर्थस्थल है। वि.सं. १२४१ में श्री सोमप्रभाचार्य रचित “कुमारपाल प्रतिबोध” से ज्ञात होता है कि, वेणी वत्सराज नामक बौद्धधर्मी राजा ने यहाँ तारा देवी का मंदिर बनवाया था तत्पश्चात् यह स्थान ‘तारापुर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। उसके बाद आर्य खपुटाचार्य (विक्रम की प्रथम शताब्दी) के उपदेश से वह राजा जैनधर्मी बना तब उसने ही यहाँ जिनेश्वरदेव की शासनाधिष्ठात्री सिद्धायिकादेवी का मंदिर बनवाकर जैनतीर्थ रूप में प्रसिद्ध किया। उसके बाद लगभग तेरहवीं शताब्दी तक इस तीर्थ का इतिहास अज्ञात है।

तेरहवीं शताब्दी में तारंगागिरी पर निर्मित बावन देवकुलिकावाला उत्तुंग देवप्रासाद आज भी जैनाचार्य श्री हेमचंद्रसूरि और गूर्जरनरेश कुमारपाल की लगभग ८०० वर्ष पूर्व की कीर्तिगाथा सुनाते हुए अडिग खड़ा है। उसे आजतक ऐसा गौरवमय और सुरक्षित बनाये रखने के लिए कुछ दानवीर जैन श्रेष्ठियों ने समय समय पर जीर्णोद्धार कर उसका विस्तार भी किया है। यह पर्वत और उसकी गुफाओं में कुछ योगी, मुनि और साधकों की स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, इसीलिए यह तीर्थ वंदनीय है।

प्राचीन जैन प्रबन्धों तथा तीर्थमालाओं में तारंगा को तारउर, तारवरनगर, तारणगिरि, तारणगढ आदि नामों से उल्लेखित किया गया है। वर्तमान में तारंगा नाम प्रसिद्ध है। इस पर्वत की संरचना लगभग इडर के पर्वत जैसी है।

स्टेशन से तारंगा की तलहटी लगभग २ मील दूर है। तलहटी से तारंगा पहाड़ की चढ़ाई एक मील है। वाहन-व्यवहार के लिए पक्की सड़क बनने के कारण नीचे से शिखर स्थित तीर्थ के प्रवेशद्वार तक वाहन जा सकते हैं।

पहाड़ पर श्वेताम्बरों के ५ मंदिर हैं तथा ३ पहाड़ियों पर ३ टूंक तथा अन्य देवकुलिकाएँ हैं। सुविधा संपन्न चार धर्मशालाएँ तथा भोजनशाला है। दिगम्बरों के भी पाँच मंदिर, ७ देवकुलिकाएँ एवं धर्मशाला है।

पूर्व द्वार से प्रवेश करने पर बायीं ओर श्री अजितनाथ मंदिर के सन्मुख लगभग तीन फूट ऊँची एक देरी में  कीर्तिस्तम्भ विद्यमान है। उसके ऊपर कुमरपाल के अंतिम वर्षो के समय का लेख है।

वर्तमान में प्रवेश दक्षिण दिशा के द्वार से होता है।

पाँच मंदिरों में श्री अजितनाथ भगवान का मंदिर कोट से घिरा हुआ उन्नत तथा विशाल है। ऊपर पहुँचते ही ‘ अजितनाथ विहार’ नाम से प्रसिद्ध मंदिर दृष्टिगोचर होता है। इस मंदिर के निर्माण हेतु कुमारपाल राजा ने श्रेष्ठी यशोदेव के पुत्र दंडनायक अभय को आदेश दिया था।

‘प्रभावकचरित्र’ में उल्लेख है कि, कुमारपाल राजा ने अर्णोराज पर आक्रमण के समय भगवान अजितनाथ के समक्ष जो कामना रखी थी उसकी पूर्तिरूप में तारंगा पर २४ गज ऊंचा मंदिर बनवाया और उसमें १०१ अंगुल (इंच) की प्रतिमा स्थापित की थी।

‘पुरातन प्रबंध संग्रह’ के उल्लेख से पता चलता है कि, जब अजयपाल ने जैन मंदिरों को धराशयी किया तब वसाह और अभाड नामक मुख्य श्रेष्ठीयों ने संघ  को एकत्रित कर कुमारपाल द्वारा निर्मापित मंदिर को अजयपाल से बचाने के लिए क्या उपाय करें ऐसा चिंतन करने पर तत्कालीन सीलनाग नामक अधिकारी से मिलकर शेष बचे तारंगा के मंदिर को बचाने के लिए निवेदन किया। सीलनाग ने युक्ति द्वारा तारणगढ़ का मंदिर औ अन्य चार मंदिरों को बचा लिया।

यह मंदिर बत्तीस मंजिल ऊँचा बनाया गया था, ऐसा कहा जाता है। आज तो तीन-चार मंजिल ही विद्यमान हैं। मंदिर प्रथम दृष्टि में देखने पर कलाभ्यासी लोग शिल्पी द्वारा आयोजित शिल्पशास्त्रानुसार सर्वांग सुंदर रचना को भाँप लेते हैं। शिल्पी द्वार आलेखित जगती की ऊँचाई, जाडंब, पद्म, कणी, अंतराल, ग्रासपट्टी, कुम्भ, कलश आदि शिल्पीय नियम अनुसार संरचित है। मंदिर में विस्तृत कलालेखन सादा होने पर सुंदर और वैविध्यपूर्ण होने के कारण मनोहर है। सोलंकीकाल की सौंदर्य कला का यह उत्तम नमूनेदार शिल्पकलाकृति का आदर्श प्रस्तुत करता है। यद्यपि, उसमें पीछे से हुए संस्करण भी दिखाई देते हैं। सत्रहवीं शताब्दी में हुए श्री ऋषभदास कवि ‘कुमारपालरास’ में कहते हैं कि, इस मंदिर के शिखर को कोई क्षति नहीं पहुँची है अर्थात् वे उसे प्राचीन काल का बताते हैं।

प्रासाद का मंडोवर और शिखर विभिन्न नक्काशी से सुसज्जित है। मंदिर के पीछे ६४ भीतीमार्ग हैं, जिनमें से एक भी दीवार नक्काशी रहित नहीं है। उसमें यक्ष, गंधर्व और नृत्यांगनाओं की भावनात्मक कलाकृति रचकर मूर्तरूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। आबू के मंदिरों के समान सूक्ष्म नक्काशी नहीं होने पर भी इस मंदिर की भव्यता आँखों को चकाचोंध करने वाली हैं, साथ ही इस मंदिर की ऊँचाई भी अद्वितीय है।

मंदिर में २३० फूट लम्बा-चौड़ा चौक है। चौक के बाहर मध्य में १४२ फूट ऊँचा, १५० फूट लम्बा और १०० फूट चौड़ा भव्य मंदिर बना है। लगभग ६३९ फूट का घेराव इस मंदिर का है। समग्र मंदिर खारे पत्थर से बनाया गया है। ईंट और चूने का मिश्रण शास्त्रीय पद्धति अनुसार इसप्रकार प्रामाणित किया गया है कि आज ८०० वर्ष के पश्चात् भी मंदिर के किसी अंश को क्षति नहीं पहुँची है।

मंदिर का मुख और द्वार पूर्वाभिमुख है। पूर्व के द्वार से प्रवेश करने पर अंबिका माता और द्वारपाल की मूर्तियों के दर्शन होते हैं। मंदिर में प्रवेश करते हेतु तीन दिशाओं में तीन प्रचंड द्वार हैं। प्रत्येक द्वार त्रिशाखायुक्त द्वार है और प्रवेशद्वार के चौखट के दोनों और ग्रासमुख है। सीढियाँ संगमरमर की बनी हुई है किन्तु सादा है। मंदिर के सिंहद्वार के पास एक विशाल अग्रमंडप मंत्री वस्तुपाल ने बनवाया था और उसमें दोनों ओर दो विशाल गवाक्ष बनवाकर भगवान की मूर्ति स्थापित की थी परन्तु वह स्थापत्य वर्तमान में विद्यमान नहीं है। मात्र लेख के साथ आसन प्राप्त होते हैं।

मंदिर में मूल गर्भगृह, गूढ़मंडप, रंगमंडप और छ: चोकियों की विभाग रचना की गयी है। रंगमंडप से मूलगर्भगृह में जाने हेतु दो छोटे द्वार रखे गये हैं। उसके पश्चात ही मूल गर्भगृह में जाने का द्वार आता है। मूलगर्भगृह १८ फूट लम्बा और २३ फूट चौड़ा है। पूरा गर्भगृह मकराणा के संगमरमर से मंडित है। मूलगर्भगृह में  मूलनायक के रूप में श्री अजितनाथ भगवान की मूर्ति बिराजमान है। यह मूर्ति १५ हाथ ऊँची और मनोहर है। उसके दोनों ओर लकड़ी की सीढ़ी रखी गयी है। उसपर चढ़कर ही मस्तक पूजा की जा सकती है। आसपास पचंतीर्थी का भव्य परिकर है। मूलनायक की पालथी पर संक्षिप्त लेख है किन्तु उसका अधिकांश भाग इस समय घिस चुका है।

सं. १४७९ में इडर निवासी श्रेष्ठी संघवी गोविंद ने इस तीर्थ का उद्धार करवाने का साथ नव भारपद (भारवट) चढ़ाये थे और स्तम्भों का भी निर्माण करवाया था तथा अपनी पत्नी, जायलदे वगैरह परिवारजनों के साथ कल्याण हेतु श्री अजितनाथ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी प्रतिष्ठा आचार्य श्री सोमसुंदरसूरिजी द्वारा करवाई थी।

इस उल्लेख को पं. प्रतिष्ठासोम द्वारा सं. १५५४ में रचित ‘सोमसौभाग्यकाव्य’ के सातवें सर्ग के विस्तृत वर्णन से समर्थन मिलता है।

श्री विजयसेनसूरि ने कुछ तीर्थों का उद्धार करवाया उसमें तारंगा के मंदिर का भी उल्लेख है और उस उद्धार का सं. १६४२ आषाढ़ सुदी १० का लेख मूल देवालय के दक्षिण द्वार की भीत पर विद्यमान है।

मूलनायक के दोनों ओर कोने में एक एक मूर्ति है। उन दोनों मूर्तियों के परिकर पर भी लेख उत्कीर्ण हैं। इन दोनों लेखों में से पहला सं. १३०४ का तथा दूसरा ज्येष्ठ सुदी-९ सोमवार का और अन्य लेख सं. १३०५ आषाढ़ वदी ७ शुक्रवार का है। दोनों मूर्तियाँ भुवनचंद्र और पद्मचंद्र आदि परिजनों के समुदाय द्वारा मिलकर प्रतिष्ठत करवायी गई हैं। दूसरे लेख में श्री धर्मघोषसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि का नाम अधिक लिखा है। दोनों के प्रतिष्ठापक आचार्य श्री भुवनचंद्रसूरि हैं।

इन प्राचीन परिकरों में स्थापित मूर्तियाँ पीछे स्थापित की गई हैं ऐसा अनुमान है।

नीचे के भाग में दोनों ओर कोने में एक एक बड़ी सुंदर कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ हैं।

ये दोनों कायोत्सर्ग प्रतिमा खेरालु एवं पालनपुर के मध्य स्थित सालमकोट नामक गाँव से आधे मील की दूरी पर स्थित पुराने सालमकोट से अथवा उसके आसपास की भूमि से वर्षों पूर्व मिली थीं। वहाँ से लाकर यहाँ प्रतिष्ठित की गई हैं। इन दोनों कायोत्सर्ग के मध्य में मूलनायक के स्थान पर एक एक बड़ी खड़ी जिनप्रतिमा निर्मित है। और उन दोनों के मूल में मूर्ति के दोनों ओर तथा ऊपर से अन्य छोटी-छोटी ग्यारह-ग्यारह जिनप्रतिमाएँ निर्मित होने के कारण लेख में इसका उल्लेख द्वादशबिंब पट्टक के नाम से है।  मूलगर्भगृह के आसपास प्रदक्षिणा पथ है। उसमें हवा-प्रकाश के लिए तीन खिड़कियाँ बनाई गई हैं। मूलगर्भगृह के पश्चात् गूढमंडप है। इसमें एक गवाक्ष में मूर्ति है। इस गवाक्ष का निर्माण किसने करवाया इस संदर्भ में हमें आबू के देलवाड़ा के मंदिर का एक शिलालेख साक्ष्यरूप में मिलता है।

वि.सं. १२९६ के वैशाख सुदी ३ के दिन उत्कीर्ण हुए आबू के लूण-वसही के शिलालेख में वरहुडीयावंशीय सेठ नेमड के परिजनों ने आबू और उसके अलावा अन्य तीर्थों और गाँवों में भी मंदिर, मूर्तियाँ, गवाक्ष, देवकुलिकाएँ तथा जीर्णोद्धार वगैरह करवाया था। उसका उल्लेख किया गया है। उसमें तारंगा के विषय में इसप्रकार से उल्लेख किया गया है।

“तारणगढ़ पर श्री अजितनाथ (मंदिर) के गूढमंडप में श्री आदिनाथ के बिंब से युक्त गवाक्ष करवाया।”

यह शिलालेखिय साक्ष्य उक्त वर्ष से पूर्व मंदिर बनवाने की बात भी प्रामाणिक ठहरती है।

मंदिर का रंगमंडप १९० फूट की घेरे में है और घुम्मट अष्टभद्र और षोडशभद्रयुक्त आठ स्तम्भों पर खड़ा है। इन स्तम्भों की ऊँचाई १५ फूट और मोटाई ८ फूट है। पीछे से निर्मित सावधानी से रखे गये अन्य १६ स्तम्भ भी आधार प्रदान करते हैं। समग्र मंदिर को सुरक्षित रखने के लिए मंदिर के अंदर और बाहर सौ से अधिक स्तम्भों की कतार खड़ी की गई है। स्तम्भों की रचना बिलकुल सामान्य है। उसके नीचे के भाग में कुम्भिकाएँ तथा ऊपर के भाग में सिर रखे गये हैं। घुम्मट में विद्याधरों व देवदेवियों की नृत्यभंगिमायुक्त पूतलियाँ विविध रंगों में नाट्य की वाद्यसामग्री के साथ अभिनयरूप में दर्शायी गई हैं। नृत्य के ये भक्तिप्रकार भारतीय कला संस्कृति का स्मरण करवाते हैं। इसमें अन्य कोई शिल्पकलाकृति नहीं है। एक प्रकार से घुम्मट बिलकुल सादा है। विशालता ही उसका गौरव है।

सभा मंडप के एक गवाक्ष में आचार्य की एक मूर्ति बिराजमान है। उसके नीचे नाम या लेख नहीं है। परन्तु संभवत: वह श्री हेमचंद्राचार्य की मूर्ति है।

छ:चोकी के घुम्मट का दृश्य भी मनोहर है। उसकी छत में सादा किन्तु सुलेख अंकन है। शृंगारचोकी की छत में भी सूक्ष्म नक्काशी की गई है। इन सभी शिल्पकलाकृतियों को देखकर कुछ पल के लिए मन मंत्रमुग्ध हो जाता है।

मंदिर तीन मंजिला है और मंजिलों की रचना क्षणभर के लिए भूल में डाल देती है। मंदिर को सुरक्षित रखने के लिए मंजिलों में ‘केगर’ नामक लकड़ी का उपयोग किया गया है। ऐसी लकडी का प्रयोग अन्य मंदिरों में कदाचित् ही देखने को मिलता है। यह लकड़ी आग में नहीं जलती, इसके विपरीत आग लगने पर उससे पानी निकलने लगता है। शिखर तक पहुँचने के लिए दीवारमार्ग है। तथा बीच में स्थित विशाल गोलाकार मंडप में ११ प्रतिमाएँ और एक ध्वजादंड पुरुषाकृति का दर्शन होता है। इस भव्य मंडप की कलाकृति अद्भुत है।

मंदिर की पूर्वदिशा के द्वार के पास हाथ की ओर एक देरी में श्री अजितनाथ भगवान की बड़ी पादुका की एक जोड़ी है। तथा बीस विहरमान जिन की २० जोड़ी है। उसके पास स्थित एक देरी में श्री विजयसिंह सूरि तथा श्री सत्यविजय पंन्यास आदि की चरणपादुका की ९ जोड़ी है। दूसरी एक देरी में प्राचीन पाषाण से निर्मित चौमुखजी है।

उसके पास चौमुखजी का शिखरबंध मंदिर है। उसमें पीले रंग की चार चौमुख मूर्तियाँ हैं।

उसके पास सहस्रकूट का एक बड़ा जिनालय है। मंदिर के मध्य भाग में ही संगमरमर में उत्कीर्ण सहस्रकूट की रचना है, जिसमें १०२४ भगवान की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है।

इस मंदिर के चारों कोनो में इसप्रकार से संगमरमर में उत्कीर्णन किया गया है। (१)समवसरण की रचना में चौमुखजी की चार मूर्तियाँ बिराजमान है। (२) दूसरे कोने में चरणपादुका की जोड़ी है। उसके बीच में, चार छोटे कद के स्तम्भ रखकर उसपर एक स्तूप जैसा आकार निर्मित किया गया है उस स्तूप में एक ओर बीसस्थानक यंत्र का पट उत्कीर्ण है। तथा चौदह राजलोक का भाव अंकित किया गया है। (३) तीसरे कोने में अष्टापद की रचना है, और (४) चौथे कोने में समेतशिखर का भाव उत्कीर्ण किया गया है।

सहस्रकूट मंदिर के पास ही नंदीश्वरद्वीप की रचना का शिखरबद्ध बड़ा मंदिर है। मंदिर के मध्यभाग में आरम्भ में उत्कीर्ण जंबूद्वीप आदि सात समुद्रों की रचना की है। नंदीश्वरद्वीप के बावन जिनालय के बावन पर्वतों के परिदृश्य द्वारा उसपर बावन चौमुखजी का निर्माण किया गया है।

सहस्रकूट का सं. १८७३ में और नंदीश्वरद्वीप का मंदिर सं. १८८० श्री संघ ने बनवाया है। उससे सम्बन्धित शिलालेख विद्यमान है।

मुख्य मंदिर के पीछे श्री संभवनाथजी का शिखरबद्ध जिनालय है। पास स्थित कोने में एक विशाल चबूतरे पर छोटी छोटी दो देरियों में यतियों की चरणपादुकाएँ स्थापित की गई है।

राजर्षि कुमारपाल तथा ३२ स्वर्णमुद्रा और मूषक अर्थात् चूहा इन तीनों को सम्मिलित करती हुई एक अनुश्रुत कथा के आधार पर इस तीर्थ को मूषक विहार भी कहा जाता है।

कई वर्ष व्यतीत होने से काल के थपेड़े और समय के प्रवाह के कारण मंदिर जीर्णशीर्ण होने के कारण कला का उत्कृष्ट नमूनेरूप बाह्यस्तर की शिल्पकलाकृति खंडित हो गई, घिस गई और मिट्टी, वर्षा आदि के कारण पर्ते जमती गई और कालक्रम से मिट्टी के थर बनते गये। कहीँ हाथ आधे खंडित हो गये हैं तो कहीं किसी शिल्प की अंगुलियाँ टूट गई, कही कंधे क्षत-विक्षत हो गये, और दिखने में विकृत हो गये थे। इस मध्याह्न उनकी सुरक्षा के उद्देश्य से अथवा अधिक काले न हो इस हेतु से उनपर चूने की पर्ते लगाई गई और ऊपराऊपरी चूने की पर्तों के कारण समग्र शिल्प स्थापत्य ढक गया। रखरखाव व संचालन की समस्या गंभीरतम बनती गई। यद्यपि आसपास के संघों ने इस तीर्थ की सुरक्षा की संभाला किन्तु अंत में टींबा के जैन संघ तथा तारंगाजी जैन श्वेताम्बर तीर्थ कमिटी ने वि.सं. १९७७, (ईस्वीसन् १९२१) में आणंदजी कल्याणजी पेढी को संचालन का कार्यभार सौंपा।

ईस्वीसन्- १९६३ में पेढ़ी के द्वारा इस तीर्थ के श्री अजितनाथ स्वामी जिनालय का सर्वांगीण जीर्णोद्धार आरम्भ हुआ। जीर्णोद्धार, पुन: नवीनीकरण की यह समस्त प्रक्रिया पेढी के तत्कालीन प्रमुख सेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई तथा अन्य ट्रस्टियों की देखरेख में और प्रख्यात सोमपुरा मनसुखभाई के निर्देशन में उनके सहयोगी तथा सहकार्यकर्ताओं के द्वारा प्रारम्भ हुई।

यह सम्पूर्ण कार्यवाही अत्यन्त परिश्रम, धैर्य, तथा सावधानी और परिश्रम भरी थी। जिसमें पूतलियों के अंगोपांग, खंडित अंगोपांग या उनके टूटे हुए भाग को पहले प्लास्टर ऑफ पेरिस से निर्मित कर लगाकर देखा। फिर पूर्णत: उपयुक्त लगने पर मूलपाषाण सदृश पत्थर उत्कीर्ण किये गये और फिर इसप्रकार से जोड़ा की कहीं भी जोड़ दिखाई न दे, जोड़-तोड़ को देखा न जा सके। यह काम साधारण नहीं था, परन्तु सेठ कस्तुरभाई का कलाबोध और कला स्थापत्य में पुन: स्थापना की सुझबुझ काम आई। और उन्हें जो शिल्पी मिले वो थे मनसुखभाई तथा उनके साथ के कलाकारों की कुशलता-दक्षता के कारण असंभव लगने वाली बात संभव हुई। सोमपुराओं ने वास्तव में शिल्प पुन:स्थापना जीवंत कर दी। चतुर्विध संघ के परम पुण्योदय से, पूज्य आचार्य भगवंत, मुनि भगवंतों के आशीर्वाद के साथ तीर्थ के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले आराधकों-साधकों की सूक्ष्म ऊर्जा के बल के द्वारा, विशेषज्ञ सोमपुरा के समुचित मार्गदर्शन के अंतर्गत यह कार्य सम्पूर्ण हो सका। यद्यपि इसमें १३ वर्ष व्यतीत हो गए। शक्ति, सम्पत्ति और समय का उत्तम सदुपयोग हुआ। उस समय लगभग १५ लाख इस कार्य में व्यय हुए। यह कार्य कठिन और उच्चकक्षा की योग्यता के अलावा धैर्य तथा कुशलता मांगने वाला था।

निम्नोक्त तीन स्थान तारंगा की टूंक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

कोटिशिला :- (टूंक-१) – मुख्य मंदिर से दक्षिण दिशा में आधा मील दूर जाने पर कोटशिला नामक स्थान आता है। उस मार्ग में बीच में एक तालाब, विशाल पानी की वापी और कुआँ आता है। उसके पास लाडुशावीर का मंदिर स्थित है। वहाँ से कोटिशिला की ओर जाने का पुराना मार्ग था। ऊँची टेकरी है, मार्ग में गुफाएँ आती हैं, दो पत्थरों की चट्टानों से रास्ता निकलता है। पहाड़ के ऊँचे शिखर पर एक विशाल शिला पर यह स्थान है, यहाँ करोड़ो मुनियों ने साधना कर मुक्ति प्राप्त की थी, इसलिए उसका नाम कोटि शिला-कोटिशिला कहा गया है। यह पहाड़ी बहुत ऊँची है। इस कोटिशिला के लिए ‘हीर सौभाग्य’ नामक संस्कृत काव्य ग्रंथ में कहा गया है कि, (हिमालय-कैलास पर्वत जैसे उत्तंग-गगनचुंबी पर्वत पर करोड़ो मुनि हेतु मानो शिव वधु (मुक्तिरूपी वधु) विवाह के उत्सव प्रसंग में स्वयंवर की भूमि जैसी कोटिशिला विद्यमान है – यहाँ करोडों मुनियों ने मोक्ष प्राप्त की है इस बात को आलंकारिक रूप में प्रस्तुत ‘हीर सौभाग्य’ काव्य के कर्ता देवविमल वाचक ने गूंथन किया है।)

एक बड़े चबूतरे पर बीच में बड़ी देरी में चौमुखजी के रूप में पार्श्वनाथ भगवान की चतुर्मुखी प्रतिमा है। तथा बीस विहरमान जिन की चरणपादुकाएँ हैं। चरणपादुका पर सं.१८२२ ज्येष्ठ सुदी-११ बुधवार तपागच्छीय श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी ने प्रतिष्ठा की ऐसा लेख है।

मोक्षबारी :- (टूंक-२) – मुख्य मंदिर से पूर्व दिशा में अर्ध मील की दूरी पर एक शिखर की चोटी पर देरी बनी हुई है। इस स्थान को ‘पाप और पुण्य की खिड़की’ भी कहा जाता है। देरी में श्री अजितनाथ भगवान वगैरह की चरणपादुकाएँ हैं। प्राचीन बड़ी चरणपादुका पर अन्य चरणपादुकाएं रखी गई हैं। जिन पर सं.१८६६ का लेख है। यहाँ एक खण्डित मूर्ति के भी दर्शन होते हैं। इस देरी के ऊपर के भाग में सादा परिकरयुक्त भगवान की मूर्ति है। परिकर प्राचीन है। गादी के नीचे सं. १२३५ वैशाख सुदी ३ का लेख है।

सिद्धशिला : (टूंक-३) – मुख्य मंदिर से दक्षिण-पश्चिम वायव्य कोण में एक खड़ी चट्टान है जिसे “सिद्धशिला” के नाम से जाना जाता है। इस शिला पर स्थित श्वेतांबर देरी में चौमुखजी की चार प्रतिमाएँ हैं जिसमें भगवान सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ, अरनाथ तथा नेमिनाथ की प्रतिमाएँ हैं। उसपर सं. १८३६ का लेख है।

यहाँ १ बड़ी तथा २ छोटी कुल ३ श्वेतांबर देवकुलिकाएँ हैं। इन दोनों शिलाओं तक जाने का मार्ग और सीढियाँ वगैरह का समुचित रखरखाव पेढ़ी की ओर से किया जाता है।

मुख्य मंदिर से टींबा की ओर के मार्ग में दो द्वार वाली गुफाएं निर्मित हैं। आसपास की भूमि पर कुछ अवशेष दिखाई देते हैं। तलहटी और टींबा के मार्ग में किले की प्राचीन दीवार ध्वस्त स्थिति में दिखाई देती है।

वर्तमान में तो इस तीर्थ का विकास उत्तम प्रकार से हुआ है। आणंदजी कल्याणजी पेढी तीर्थ संरक्षण, विकास और समग्र व्यवस्थातंत्र का संचालन करती है।

सुविधाओं से सुसज्ज धर्मशालाएँ, भोजनशाला वगैरह की व्यवस्था सुन्दर होने के कारण यहाँ आने वाले संघ तथा अन्य यात्रियों को विशाल धर्मशालओं में सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। भोजनशाला की व्यवस्था एक अलग ट्रस्ट संभालती है।

गुजरात की अनेक स्कूलों के विद्यार्थी तारंगा पर्वत के शैक्षणिक पर्यटन में जिनालय का भी दर्शन करते हैं।

तलहटी की उत्तर दिशा में डेढ मील की दूरी पर तारणमाता का मंदिर है। तारादेवी की मूर्ति श्वेत पाषाण से निर्मित है। यह मंदिर प्राचीन है।

इस मंदिर के पास गुफा में धारणदेवी का भी मंदिर है। मंदिर में आठ बौद्ध प्रतिमाएँ भी हैं।

मुख्य मंदिर से वायव्य कोण में एक गुफा है। उसे लोग “जोगीडानी गुफा” कहते हैं। इस गुफा में एक रक्तवर्णी पत्थर में बोधिवृक्ष के नीचे चार बुद्ध मूर्तियाँ उत्कीर्ण देखने को मिलती हैं।

प्रत्येक वर्ष कार्तिक और चैत्र पूर्णिमा के दिन यहाँ मेला लगता है।

भारतवर्ष के जैन संघ के लिए आज यह तीर्थ अनुपम कला और स्थापत्य का जीवंत स्मारक के रूप में सामने उभर के आता है। प्राकृतिक पर्वतीय छटा, वन, वृक्ष, झरणे, शांत नीरवतापूर्ण वातावरण, स्वच्छ शुभ्र आकाश के नीचे स्थित इस तीर्थ के जिनालय में, परिसर में परमात्म भक्ति, प्रीति, आराधना/साधना के सहारे साधक समत्व की आत्मानुभूति में एकाकार हो जाते हैं।

इस तीर्थ की भूमि पावन है। यहाँ के रजकण पवित्र हैं। यह स्थान पापशमनक है क्योंकि यहाँ उत्तुंग जिनालय है। द्वितीय तीर्थंकर की विशालकाय मनोहर जिनप्रतिमा है। भक्तिभाव से भरा वातावरण है-भावपूर्ण लाखो-करोड़ो यात्रियों का शुभभाव, भक्ति और श्रद्धा का स्पंदन, आंदोलन यहाँ जीवंत बने हुए हैं।

सालगिरह

मूलनायक श्री अजितनाथ भगवान की सालगिरह आश्विन सुदी – १० (दशहरे) के दिन मनाई जाती है।

प्रसंग

मूलनायक श्री अजितनाथ भगवान का सालगिरह दिन आश्विन सुदी – १० (दशहरा)
तीर्थ का विशिष्ट पर्व आश्विन सुदी – १०, (दशहरा) ध्वजारोहण दिन
अजितनाथ भगवान के कल्याणक का वर्णन
च्यवन कल्याणक वैशाख सुदी-१३, रोहिणी नक्षत्र, अयोध्या
जन्म कल्याणक महा सुदी-८, रोहिणी नक्षत्र, अयोध्या
दीक्षा कल्याणक महा सुदी-९, रोहिणी नक्षत्र, अयोध्या
केवलज्ञान कल्याणक पौष सुदी-५, मृगशीर्ष नक्षत्र, अयोध्या
निर्वाण कल्याणक चैत्र सुदी-५, मृगशीर्ष नक्षत्र, अयोध्या

समय पत्रक

जिनालय खोलने का समय प्रात: ६-१५ बजे
वासक्षेप पूजा का समय प्रात: ०७-०० बजे
प्रक्षाल के चढ़ावे का समय सुबह ९-१५ बजे
प्रक्षालन का समय सुबह ९-३० बजे
केसर पूजा करने का समय सुबह ९-४५ बजे
पुष्पपूजा, मुकुटपूजा, आरती, मंगलदीप करने का समय सुबह १०-१५ बजे
दादा की पूजा का समय सुबह १०- से सायं ४-बजे तक, आरती और मंगलदीप का समय सुबह १०-३० बजे
मणीभद्र वीर की आरती करने का समय सुबह १०-४५ बजे
आंगी रचने का समय सायं ४-०० बजे
पूजा बंद होने का समय सायं ४-०० बजे
सायं भावना का समय सायं ५-१५ बजे
आरती और मंगलदीप का समय सायं ७-४५ बजे
जिनालय मांगलिक करने का समय रात्रि ८-०० बजे
घी बोली की दर रु. ५/- एक मण

धर्मशाला तथा भोजनशाला

१) पुरानी टोरेन्ट धर्मशाला, जिसमें आधुनिक सुविधा संपन्न २४ कमरे तथा ४ बड़े हॉल की सुविधा है।

२) नयी टोरेन्ट धर्मशाला, जिसमें आधुनिक सुविधा संपन्न कुल २० कमरे तथा २ विशेष कमरे हैं।

३) गिरीश-विहार धर्मशाला, जिसमें ८ कमरे हैं।

४) चंपाबेन धर्मशाला, जिसमें ८ कमरे हैं।

५) इसके अलावा यात्रार्थ आने वाले संघ हेतु विशेष सुविधा के लिए छोटे-बडे २ रसोईघर हैं।

उपाश्रय

विहार कर इस तीर्थ में पधारने वाले पूज्य साधु-साध्वीजी महाराज साहब के लिए २ अलग उपाश्रयों की व्यवस्था है।

भोजनशाला

इस तीर्थ में सुंदर भोजनशाला है। जिसमें भोजन के अलावा अल्पाहार के लिए केन्टीन की व्यवस्था भी है। भोजनशाला का संचालन स्वतन्त्र ट्रस्ट के अधीन है। भोजनशाला में भाताखाते की व्यवस्था भी है।

तीर्थ की योजनाएँ

१. प्रमुख लाभार्थी : रु. २ लाख और उससे अधिक की राशि देने का लाभ लेने वाले दाता का नाम तख्ती में दर्शाये अनुसार ऊपर के भाग में सहयोग की राशि अनुसार क्रमश: ऊपर के भाग में १” के कुल ५४ अक्षरों की सीमा में दो पंक्ति में लिखा जायेगा।

२. मुख्य लाभार्थी : रु. १ लाख और उससे अधिक की राशि देने का लाभ लेने वाले दाता का नाम तख्ती में प्रमुख लाभार्थी के नीचे सहयोग की राशि अनुसार क्रमश: ०।।। के कुल ५४ अक्षरों की सीमा में दो पंक्ति में लिखा जायेगा।

३. सहयोगी लाभार्थी : ५१०००/- और उससे अधिक दान देने वाले का नाम तख्ती में दर्शाये अनुसार आस-पास के दो विभाग मे ०।। के कुल ५४ अक्षरों की सीमा में दो पंक्ति में लिखा जायेगा।

सर्व साधारण फंड की योजना है। (तख्ती में नाम लिखा जाता है।)

निश्चित तिथियाँ
श्री सर्वसाधारण ५,०००/-
श्री जिनालय साधारण ३,०००/-
श्री आंगी ५,०००/-
श्री उकाला पानी १,१११/-
श्री अखंडदीप १,१११/-
केसर-चंदन ५,०००/-

समीपस्थ तीर्थ स्थल

फोटो गैलरी

संपर्क

सेठ आनंदजी कल्याणजी
एम.पी.ओ. तरंगा मंदिर, पिन- 384 350
ज़िला मेहसाणा, गुजरात

फोन नंबर: 9428000601/9428000602
मैनेजर (मो):  9428000612