श्री गिरनार महातीर्थ की तलहटी में श्री आदीश्वर भगवान के तथा नूतन जय तलहटी में स्थित चरणपादुका के दर्शन कर गिरनार के प्रवेशद्वार से अंदर जाने पर दायीं ओर पाँचवीं सीढ़ी पर श्री नेमिनाथ भगवान की चरणपादुका की देरी आती है। उसे विशा श्रीमाली श्रावक लखमीचंद प्रागजी ने बनवाई थी। जिसमें श्री नेमिप्रभु के पूर्वाभिमुख चरणपादुका और शासन तथा तीर्थ की अधिष्ठायिका श्री अंबिकेदेवी की प्रतिमा प्रस्तरपट की दीवार में प्रतिष्ठित की गई है।
गिरनार महातीर्थ यात्रा की सुगमता हेतु वि.सं. १२१२ में आंबड श्रावक ने सुव्यवस्थित सीढ़ियाँ बनवाई थी। उसके बाद समय समय पर उसके जीर्णोद्धार के लेख देखने को मिलते हैं।
३८०० सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद उपरकोट के किले का द्वार आता है। उसे देवकोट भी कहते हैं, उस द्वार के ऊपर नरशी केशवजी ने कोट (किला) बनवाया था, जहाँ वर्तमान में वनसंरक्षण विभाग की ऑफीस है। इस किले के मुख्यद्वार से अंदर प्रवेश करने पर बायीं ओर श्री हनुमानजी की देरी तथा दायीं ओर कालभैरव की देरी आती है।
अति प्राचीन इस गिरनार तीर्थ के अनेक उद्धार हुए हैं. वर्तमान में इस महान तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाने की पूरी आवश्यकता थी, ऐसे संयोगों में संवत्-१९७९ (ईस्वीसन् १९२३) में तपगच्छ की परम्परा के महान आचार्य भगवंत श्री विजयनीतिसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से इस तीर्थ का जीर्णोद्धार हुआ था।
श्री नेमिनाथ की टूंक
इस द्वार से अंदर प्रवेश करते ही अनेक जिनालयों की हारमाला का आरंभ होता है। वहाँ से १५-२० कदम आगे चलने पर बायीं ओर श्री नेमिनाथजी की टूंक में जाने का मुख्य द्वार आता है। जहाँ सेठ श्री देवचंद लक्ष्मीचंद की पेढ़ी : गिरनारतीर्थ ऐसे लेख वाला बोर्ड लगाया गया है। श्री नेमिनाथ भगवान के मुख्य जिनालय के प्रांगण का आरंभ होता है। यह चोक १३० फूट चौड़ा तथा १९० फूट लम्बा है। जिसमें मुख्य जिनालय की परिधि में ८४ देवकुलिकाएँ है।
१)श्री नेमिनाथ जिनालय
श्री नेमिनाथ जिनालय के प्रांगण में प्रवेश करते ही श्री नेमिनाथ भगवान के विशाल तथा भव्य गगनस्पर्शी शिखरबंद जिनालय के दर्शन होते हैं। अत्यंत आह्लादक इस जिनालय के दक्षिण द्वार से प्रवेश करते ही ४१.६ फूट चौड़ा और ४४.६ फूट लम्बा रंगमंडप आता है। जिसके मुख्य गर्भगृह में गिरनार गिरिभूषण श्री नेमिनाथ परमात्मा की चित्त को अनुपम आनंद देने वाली ६१ इंच की श्यामवर्णीय मनोहर प्रतिमा बिराजमान है। जिसके दर्शन करते ही गिरिवर आरोहण की थकान के साथ साथ भवभ्रमण की थकान भी उतर जाती है। मूलनायक की परिधि तथा रंगमंडप में तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमाएँ तथा यक्ष-यक्षिणी और गुरुभगवंतों की प्रतिमाएँ बिराजमान है। इस रंगमंडप के आगे २१ फूट चौड़ा और ३८ फूट लम्बा दूसरा रंगमंडप आता है। जिसमें मध्य में अलग अलग दो शिलाप्रस्तर पर गणधर भगवंतों की लगभग ८४० चरणपादुकाएं स्थापित की गई हैं। जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १६९४ चैत्र कृष्णपक्ष द्वितीया को हुई है। आसपास अन्य तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमाएँ बिराजमान है।
२)जगमाल गोरधन द्वारा निर्मित जिनालय
श्री नेमिनाथ भगवान के मुख्य जिनालय के ठीक पीछे श्री आदिनाथ भगवान का जिनालय है। इस जिनालय में ३१ इंच के श्री आदिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा पोरवाड जाति के श्री जगमाल गोरधन द्वारा आ. विजय जिनेन्द्रसूरि महाराज साहब की पावननिश्रा मे वि.सं. १८४८ के वैशाख कृष्णा-६ शुक्रवार के दिन की गई थी। श्री जगमाल गोरधन ने श्री गिरनारजी तीर्थ पर जिनालयों के मुनिम के रूप में कर्तव्य निभाते हुए उन जिनालयों का संरक्षण करते थे। उनके नाम से जूनागढ़ शहर के उपरकोट के पास स्थित चोक का नाम जगमाल चोक रखा गया था।
मेरकवशी की टूंक :-
मेरकवशी की टूंक के मुख्य जिनालय में प्रवेश करने से पहले दाहिनी ओर पंचमेरु का जिनालय आता है।
१)पंचमेरु का जिनालय
इस पंचमेरु जिनालय की रचना अत्यंत रमणीय है। जिसमें चारों ओर के चार कोने में घातकीखंड के दो मेरु और पुष्करार्ध द्वीप के दो मेरु तथा मध्य में जंबूद्वीप का एक मेरु इसप्रकार पाँच मेरुपर्वत की स्थापना की गई है। जिसमें प्रत्येक मेरुपर्वत की स्थापना की गई है। जिसमें प्रत्येक मेरु पर ऋषभदेव भगवान की चौमुखजी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गई है। जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १८५९ में की गई थी ऐसे लेख उपलब्ध हैं।
२)अदबदजी का जिनालय
पंचमेरु के जिनालय से बाहर निकलने पर मेरकवशी के मुख्य जिनालय में प्रवेश करने से पहले बायीं ओर श्री ऋषभदेव भगवान की पद्मासनमुद्रा में बैठे हुए १३८ इंच की महाकायप्रतिमा देखते ही श्री शत्रुंजय गिरिराज की नौ टूंक में स्थित अदबदजी दादा का स्मरण करवाने के कारण इस जिनालय को भी अदबदजी का जिनालय कहते हैं।
३) मेरकवशी का मुख्य जिनालय
इस जिनालय के मुख्यद्वार की छत में ही विविध कलाकृतियुक्त सूक्ष्मतम नक्काशी आश्चर्यजनक है। आगे बढ़ने पर गुम्बद की नक्काशी देखने पर देलवाडा के विमलवसही और लूणवसही के स्थापत्यों का स्मरण होता है। इस बावन जिनालय के मूलनायक श्री सहस्रफणा पार्शवनाथ हैं, जिनकी प्रतिमा ३९ इंच की है। जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १८५९ में प.पू. आ. जिनेन्द्रसूरि महाराज साहब के वरदहस्तों से हुई थी।
संगरामसोनी की टूंक
मेरकवशी की टूंक से बाहर निकलने पर उत्तरदिशा के द्वार से संगरामसोनी की टूंक में प्रवेश करते हैं। इस बावन जिनालय के मुख्य जिनालय में द्विस्तरी अत्यंत मनोहर रंगमंडप है। इस जिनालय के गर्भगृह की छत की ऊँचाई लगभग १० से ३५ फूट है। कुछ विद्वानों के मतानुसार सगरामसोनी या संग्राम सोनी के नाम से प्रसिद्ध यह जिनालय वास्तव में समरसिंह मालदे द्वारा बनवाया गया है।
इस जिनालय की परिधि की उत्तरदिशा के द्वार से बाहर निकलने पर कुमारपाल की टूंक में जाने का मार्ग आता है। तथा उस मार्ग के दायीं ओर डॉक्टर कुंड तथा गिरधर कुंड स्थित है।
कुमारपाल की टूंक :-
कुमारपाल की टूंक में प्रवेश करने पर मुख्य जिनालय के चारों ओर एक बड़ा प्रांगम देखने को मिलता है। इस प्रांगण से होकर जिनालय में प्रवेश करते ही एक विशाल रंगमंडप आता है। जिसमें आगे बढ़ने पर दूसरा रंगमंडप आता है। इस जिनालय में मूलनायक के रूप में २४ इंच के श्री अभिनंदनस्वामी बिराजमान हैं। जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १९७५ में वैशाख शुक्ला-७ शनिवार के दिन आचार्य जिनेन्द्रसूरि महाराज द्वारा की गई थी।
भीमकुंड :-
यह भीमकुंड बहुत विशाल है। वह लगभग ७० फूट लम्बा और ५० फूट चौड़ा है। यह कुंड १५ वीं शताब्दी में बना हुआ प्रतीत होता है। ग्रीष्मऋतु की प्रचंड गर्मी में भी इस कुंड का पानी शीतल रहता है। इस कुंड की एक दीवार में एक पाषाण में श्री जिनप्रतिमा तथा हाथ जोड़कर खड़े हुए श्रावक-श्राविका की प्रतिमा उत्कीर्ण की हुई देखने को मिलती हैं।
श्री चंद्रप्रभस्वामी का जिनालय
श्री चन्द्रप्रभस्वामी के इस जिनालय का स्थान बिलकुल एकान्त में स्थित है। इस जिनालय में मूलनायक श्री चन्द्रप्रभस्वामी की १६ इंच की प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.सं. १७०१ में हुई है। इस जिनालय की छत अनेक कलाकृतियों से सुशोभित है। इस जिनालय से उत्तरदिशा में ३०-३५ सीढ़ियाँ नीचे उतरने गजपद कुंड आता है।
गजपद कुंड :-
यह गजपदकुंड गजेन्द्रपद कुंड तथा हाथी चरणपादुका कुंड के नाम से भी जाना जाता है। इस कुंड के १३ वीं से १५ शताब्दी में बने होने का उल्लेख गिरनार सम्बन्धित लगभग सभी जैन साहित्य में मिलता है।। इसके अलावा स्कन्दपुराण के अंतर्गत प्रभास खंड में भी उसका उल्लेख देखने को मिलता है। इस कुंड के एक स्तम्भ में जिनप्रतिमा उत्कीर्ण की गई है।
मानसंग भोजराज का जिनालय
यह जिनालय कच्छ-मांडवी के वीशा ओसवाल शा. मानसंग भोजराज द्वारा बनवाया गया है जिसमें मूलनायक के रूप में श्री संभवनाथ भगवान की सुंदर २५ इंच की प्रतिमा बिराजमान है। इस जिनालय में जाने से पूर्व मार्ग में आने वाला सुरजकुंड भी शा. मानसंग द्वारा बनवाया गया है। उन्होंने वि.सं. १९०१ में जूनागढ़ गाँव में आदीश्वर भगवान के जिनालय की प्रतिष्ठा भी की थी।
वसतुपाल-तेजपाल का जिनालय –
इस जिनालय में एक साथ परस्पर जुड़े हुए तीन मन्दिर है। ये जिनालय गुर्जरदेश के मंत्रीश्वर वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा वि.सं. १२३२ से १२४२ में बनवाये थे। जिसमें वर्तमान में मूलनायक के रूप में श्री शामला पार्श्वनाथ भगवान की ४३ इंच की प्रतिमा बिराजमान है। जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १३०६ में वैशाख शुक्ला-३ शनिवार के दिन आ.प्रद्युम्नसूरि महाराज की मुख्य परम्परा में श्री देवसूरि के शिष्य श्री जयानंद महाराज ने की थी। इस बीच वाले जिनालय का रंगमंडप २९.१/२ फूट चौडा और ५३ फूट लम्बा है। तथा आसपास दोनों जिनालयों के रंगमंडप ३८.१/२ फूट चतुस्र है।
इस जिनालय में वि.सं. १२८८ फाल्गुन शुक्ला-१० बुधवार के दिन लगभग ६ से ७ शिलालेख है। जिसमें चार लेखों में वस्तुपाल और उनकी पत्नी ललितादेवी के श्रेयार्थ अजितनाथ आदि जिनालय बनवाये और दो मंदिर द्वितीय पत्नी सोखुकादेवी के श्रेयार्थ बनवाने का उल्लेख है।
मुख्य जिनालय के बायीं ओर के जिनालय में चतुस्र समवसरण में चौमुखजी भगवान प्रतिष्ठित किए गये हैं। दाहिनी ओर के जिनालय में गोलमेरु के ऊपर चौमुखजी भगवान प्रतिष्ठित हैं। इन जिनालयों की नक्काशी और कलाकृतियुक्त कमान वाले स्तम्भ, जिन प्रतिमाएँ, विविध द्रश्य तथा कुंभादि की आकृति मनोहर है। चौमुखजी जिनालयों की विशालता तथा संरचना नयनरम्य है।
गुमास्ता का जिनालय –
वस्तुपाल-तेजपाल जिनालय के पीछे के प्रांगण में उनकी माता का जिनालय है। जो गुमास्ता के जिनालय के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर में १९ इंच के मूलनायक श्री संभवनाथ भगवान बिराजमान है। वस्तुपाल की माता कुमारदेवी के नाम से यह मंदिर बनवाने के कारण वस्तुपाल की माता के जिनालय के रूप में पहचाना जाता है। तथा कच्छ-मांडवी के गुलाबशाह द्वारा बनवाने के कारण गुलाबशाह के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
संप्रति राजा का टूंक :-
वस्तुपाल-तेजपाल के जिनालय से बाहर निकल कर उत्तर दिशा की ओर जाने पर संप्रतिराजा की टूंक आती है। संप्रति महाराज द्वारा बनवाया गये इस जिनालय में मूलनायक के रूप में ५७ इंच के श्री नेमिनाथ भगवान बिराजमान हैं। यह प्रतिमा वि.सं. १५१९ में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख प्रतिमा के आसन प्रस्तर पट में देखने को मिलता है। मूलनायक के गर्भगृह के बाहर के गवाक्ष में हंसवाहिनी, हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किए हुए सरस्वतीदेवी की प्रतिमा है। इसके अलावा रंगमंडप में ५४ इंच की खड़ी काउस्सग्ग प्रतिमा के सहित अन्य २४ नयनरम्य प्रतिमा भी बिराजमान है।
ज्ञानवापी का जिनालय –
संप्रतिराजा के जिनालय से उत्तर दिशा की ओर ढ़लान से नीचे उतरने पर समीप में बायीं ओर के द्वार से प्रवेश करते ही प्रथम चोगान में ज्ञानवापी आती है। इस चोक में स्थित उत्तर दिशा की ओर के द्वार से भीतर प्रवेश करने पर चौमुखजी का जिनालय आता है। जो श्री संभवनाथ भगवान के नाम से पहचाना जाता है। इस जिनालय के मूलनायक के रूप में श्री संभवनाथ भगवान की १६ इंच की प्रतिमा है।
सेठ धरमचंद हेमचंद का जिनालय –
उपकोट (देवकोट) के द्वार से बाहर निकलने पर सबसे पहला जिनालय सेठ धरमचंद हेमचंद का आता है। जिसे खड्डे का जिनालय भी कहा जाता है। इस जिनालय में २९ इंच के मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान बिराजमान हैं।
मल्लवाला जिनालय
सेठ धरमचंद हेमचंद के जिनालय से आगे बढ़ने पर लगभग ३५ से ४० सीढ़ियाँ चढ़ने पर दायीं ओर मल्लवाला जिनालय आता है। इस जिनालय में २१इंच के मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान बिराजमान है। इसका उद्धार जोरावरमल्लजी द्वारा होने के कारण यह जिनालय मल्लवाला जिनालय के नाम से जाना जाता है।
चौमुखजी का जिनालय –
चौमुखजी जिनालय में वर्तमान में उत्तराभिमुख मूलनायक श्री नेमिनाथ, पूर्वाभिमुख श्री सुपार्श्वनाथ, दक्षिणाभिमुख श्री चन्द्रप्रभस्वामी और पश्चिमाभिमुख श्री मुनिसुव्रतस्वामी हैं। उसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १५११ में आचार्य श्री जिनहर्षसूरि महाराज द्वारा होने के प्रस्तर लेख देखने को मिलते थे। यह जिनालय श्री शामला पार्श्वनाथ के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस जिनालय में प्रस्तर के चारों कोने में स्थित स्तम्भों पर एक-एक में२४-२४ प्रतिमाएँ इसप्रकार कुल ९६ प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई हैं। ये चार स्तम्भ विवाह मंडप के चंवरी जैसे होने के कारण इसे चंवरी जिनालय के नाम से भी जाना जाता है।
इस चौमुखजी के जिनालय से आगे लगभग ७०-८० सीढ़ियाँ चढ़ने पर बायीं ओर सहसावन श्री नेमिनाथ भगवान की दीक्षा-केवलज्ञान कल्याणक भूमि की ओर जाने का मार्ग आता है।
रहनेमि का जिनालय श्री सिद्धाचल रहनेमि –
गौमुखी गंगा स्थान से लगभग ३५० सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने पर दाहिनी ओर रहनेमि का जिनालय आता है। इस जिनालय में मूलनायक के रूप में ५१ इंच की श्याम-वर्ण प्रतिमा बिराजमान की गई है।
इस रहनेमिजी के जिनालय से आगे साचाकाका से कठिन चढ़ाई चढ़ने पर लगभग ५३५ सीढ़ियों के बाद अंबाजी का मंदिर आता है।
अंबाजी की टूंक –
इस अंबाजी की टूंक में अंबिका देवी का मंदिर स्थित है। दामोदरकुंड समीपस्थ मंदिर, गिरनार पर स्थित श्री नेमिनाथ भगवान तथा अंबाजी का मंदिर संप्रतिराजा द्वारा बनवाये गये कहलाते हैं। शिल्पस्थापत्य के आधार पर बारहवी तेरहवीं की शताब्दी में बने ये मंदिर वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा बनवाने की बात भी कई लेखों द्वारा जानने को मिलती है।
इस मंदिर के पीछे श्री नेमिनाथ भगवान की चरणपादुका प्रतिष्ठित की गई है। कुछ लोग इसे शाम्ब की चरणपादुका भी कहते हैं। वस्तुपाल ने इस टूंक पर श्री नेमिनाथ भगवान वगैरह की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की है ऐसे उल्लेख मिलते हैं।
गोरखनाथ की टूंक – (अवलोकन शिखर)
इस गोरखनाथ की टूंक पर श्री नेमिनाथ परमात्मा की वि.सं. १९२७ वैशाख सुदी-३ शनिवार के दिन की लेखयुक्त चरणपादुका है, जो बाबू धनपतसिंहजी द्वारा स्थापित हैं। ये चरणपादुका प्रद्युम्न की हैं ऐसा भी कहा जाता है।
गोरखनाथ की टूंक से आगे लगभग १५ सीढ़ियाँ उतरने पर बायीं ओर भींत में काले पाषाण में एक जिनप्रतिमा उत्कीर्ण की गई है, तथा लगभग ४०० सीढ़ियाँ उतरने के बाद भी बायीं ओर एक काले पाषाण पर जिनप्रतिमा उत्कीर्ण की गई है। इसप्रकार कुल लगभग ८०० सीढ़ियाँ उतरने पर सीढ़ी रहित विकटमार्ग से चौथी टूंक की ओर जाते हैं।
ओघड़ टूंक (चौथी टूंक)
इस ओघड़ टूंक पर पहुँचने के लिए कोई सीढ़ी नहीं है, इसलिए पत्थर पर टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चढ़कर ऊपर जाते हैं। यह मार्ग बड़ा विकट है। इस टूंक पर एक बड़ी शिला में श्री नेमिनाथ की प्रतिमा तथा दूसरी शिला पर चरणपादुका उत्कीर्ण की गई है।
पाँचवीं टूंक – (मोक्षकल्याणक टूंक)
गिरनार माहात्म्य के अनुसार इस पाँचवीं टूंक में पूर्वाभिमुख परमात्मा की चरणपादुका पर वि.सं. १८९७ में प्रथम आश्विन कृष्णपक्ष-७ गुरुवार को शा.देवचंद लक्ष्मीचंद द्वारा प्रतिष्ठा करवाने का लेख है।
वर्तमान में यह टूंक दत्तात्रेय के नाम से प्रसिद्ध है। जैन मान्यतानुसार श्री नेमिनाथ परमात्मा के श्री वरदत्त, श्री धर्मदत्त और श्री नरदत्त इसप्रकार तीन गणधर के नाम के अंत में “दत्त” शब्द आने से “दत्तात्रेय” ऐसा नाम प्रचलित हुआ है यह कहा जाता है। कई लोग इन चरणपादुका को श्री वरदत्तगणधर की चरणपादुका भी कहते हैं। लगभग ६० वर्ष पूर्व इस टूंक का संपूर्ण संचालन सेठ देवचंद लक्ष्मीचंद की पेढी द्वारा किया जाता था। और पहली टूंक से पुजारी पूजा करने आता था। वर्तमान में दत्तात्रेय के रूप में प्रसिद्ध इस टूंक का संपूर्ण संचालन हिन्दु महंत के द्वारा किया जाता है।
आज जैन इस पवित्रभूमि का मात्र दर्शन एवं स्पर्श कर संतोष मानते हैं।
इस पाँचवीं टूक से नीचे उतरने पर मुख्य सीढ़ी पर वापिस आने के स्थान पर बायीं ओर की लगभग ३५० सीढ़ियाँ उतरने पर कमंडलकुंड नामक स्थान आता है।
कमंडलकुंड –
यहाँ नित्य अग्नि-धूनि प्रज्वलित रहती है। यहाँ आने वाले प्रत्येक यात्री हेतु नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था है। जहाँ नित्य सैंकड़ों यात्री भोजन प्राप्त करते हैं। इस कमंडलकुंड से अनसुया की छठी टूंक और महाकाली की सातवीं कालिका कुंड पर जाते हैं।
कालिका टूंक
कमंडल टूंक से कालीका टूंक जाने का मार्ग अत्यंत विकट और भयंकर होने के कारण जानकार को साथ ले जाना हितकारी है। मार्ग में कोई भटक न जाये इसलिए स्थान स्थान पर सिन्दुर से निशान लगाये गए हैं। मार्ग बड़ा कंटीला व पथरीला होने के कारण कोई साहसी व्यक्ति ही कालिका टूंक तक पहुँच सकता है। पहले यह कहा जाता था कि दो व्यक्ति कालिका टूंक जाये तो उनमें से एक ही वापिस लोटता है। कालिका की टूंक में कालिका माता का स्थान और चोटी पर त्रिशूल देखने को मिलता है।
कमंडलकुंड से पाडंवगुफा की ओर जाने का मार्ग मिलता है। यह गुफा पाटण वाव में जाकर निकलती है ऐसी किवंदंति है।
कमंडलकुड से वापिस लोटते समय गोरखनाथ टूंक से होकर गौमुखी गंगा के समीप उत्तरदिशा की ओर के रास्ते में लगभग १२०० सीढ़ियाँ नीचे उतरने पर सहसावन का विस्तार आता है।
इस सहसावन में श्री नेमिनात प्रभु की दीक्षा कल्याणक तथा केवलज्ञान कल्याणक की भूमि के स्थान पर प्राचीन देरियों में प्रभुजी की चरणपादुकाएँ प्रतिष्ठित है।
उसमें केवलज्ञान कल्याणक की देरी में श्री रहनेमि तथा साध्वी राजीमती ने यहाँ मोक्ष प्राप्त की थी, अतएव उनकी चरणपादुका भी प्रतिष्ठित की गई है।
लगभग ४०-४५ वर्ष पूर्व तपस्वी सम्राट आचार्य हिमांशुसूरिजी महाराज के अथक पुरुषार्थ से सहसावन में जगह प्राप्त करके केवलज्ञान कल्याणकरूप में समवसरण मंदिर का निर्माण हुआ।
समवसरण मंदिर
इस समवसरण मंदिर में मूलनायक के रूप में ३५ इंच के श्यामवर्णीय संप्रतिकालीन श्री नेमिनाथ भगवान की चौमुखजी प्रतिमा बिराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा वि.सं. २०४० चैत्र कृष्णा-पंचमी के दिन हुई है।
समवसरण के पीछे नीचे गुफा में श्री नेमिनाथ परमात्मा की ११ इंच की अत्यंत मनोहर प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई है।
इस समवसरण मंदिर से बाहर निकलकर सीढ़ियाँ उतरने पर दो रास्ते आते हैं जिसमें बायीं ओर के रास्ते में ३००० सीढ़ियाँ उतरने पर लगभग आधा किलोमीटर चलने पर तलहटी आती है। दायीं ओर १० सीढ़ियां उतरने पर बायीं ओर बोगदा की धर्मशाला आती है। वहां से ३० सीढ़ियाँ उतरने पर बायीं ओर श्री नेमिनाथ परमात्मा की केवलज्ञान कल्याणक की प्राचीन देरी आती है।
श्री नेमिप्रभु की दीक्षाकल्याणक की प्राचीन देरी
यह दीक्षा कल्याणक की प्राचीन देरी एक विशाल चोक में स्थित है। जिसमें श्री नेमिप्रभु की श्यामवर्णीय चरणपादुका प्रतिष्ठित की गई है।
इस दीक्षा कल्याणक की देरी से दायीं ओर वापिस लोटने पर ७० सीढ़ियाँ चढ़ने पर दायीं और तलहटी की ओर जाने का मार्ग आता है। जिस मार्ग में लगभग १८०० सीढ़ियाँ उतरने पर रायणवृक्ष क नीचे एक प्याऊ आती है। वहाँ से १२०० सीढ़ियाँ उतरने पर लगभग आधा किलोमीटर चलने पर गिरनार तलहटी आ जाती है।