प्राचीन तीर्थ कुंभारियाजी

राजस्थान के विख्यात स्टेशन आबू रोड से १४ मील दूर तथा गुजरात के सुप्रसिद्ध तीर्थधाम अंबाजी से मात्र २ किलोमीटर दूर कुंभारिया नामक गाँव है। प्रचीन शिलालेख में आलेखित ‘आरासण’ ही कुंभारिया है। शिलालेखों से पता चलता है कि, सत्रहवीं शताब्दी तक यह गाँव ‘आरासण’ के नाम से प्रसिद्ध था। उसके स्थान पर ‘कुंभारिया’ नाम कैसे प्रचलित हुआ? यह ज्ञात नहीं हो सका है। डॉ.भांडारकर कहते हैं कि, “कुंभारिया के आसपास पड़े हुए अवशेषों से ज्ञात होता है कि किसी समय यहाँ कई जिनमंदिर थे ऐसा अनुमान होता है।” फार्बस साहब लिखते हैं कि, “भूकंप के कारण आरासण के कई मंदिर भूमिग्रस्त हो गये होंगे।” परन्तु इस के लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। फिर भी एक समय यह गाँव एक बड़ा नगर और व्यापार का केन्द्र था, यहाँ के लोग किस कारण यहाँ से स्थानांतर कर गये इसे जानने के लिए कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आज थोड़ी बहुत बस्ती है और अन्य देवालय तथा धर्मस्थानों से भरे इस प्रदेश में ५ जैन मंदिर एक ही संकुल में हैं। आरासण गाँव की स्थापना लगभग १५ वीं शताब्दी के द्वितीय चरण के आरंभ के आसपास हुई होगी। यहाँ प्राप्त होने वाले प्राचीनतम १०८७ (ईस्वीसन् १०३१) के प्रस्तर लेख में आरासणनगर, पाटणपति, चौलुक्यवंश के महाराज भीमदेव प्रथम के अधीन होना बताया गया है। खरतरगच्छ पट्टावली में विमलमंत्री ने आरासण में अंबिका प्रासाद का निर्माण करवाया इसका उल्लेख है। प्रस्तुत प्रासाद संप्रति अंबाजी में स्थित अंबिका मंदिर है या अन्य कोई, यह कहना कठिन है। मंत्रीश्वर विमल का कुल धनुहावी की अर्थात् ‘चंडिका’ की कुल देवी के रूप में उपासना करता था यह बात जैन ग्रंथ प्रशस्तियों-प्रबंधों द्वारा सुविदित है। दूसरी ओर मंत्रीश्वर के समय में जैन यक्षिणी अंबिका की दो संगमरमर की प्रतिमाएँ आबू पर विमलवसही में उपलब्ध होने के कारण, जैनमतानुकूल अंबिका की भी मंत्रीश्वर उपासना करते थे। (स्व.) मुनिश्री पुण्यविजयजी को प्राप्त हुई जैसलमेर भंडार की एक पुरानी ताडपत्रीय प्रति में चंद्रावती के दंडनायक विमल ने आबू पर जिनमंदिर बनवाये और उससे पूर्व आरासण में आदीश्वरदेव का प्रासाद बनवाने की घटना का उल्लेख मिला, ऐसा सुना है। दूसरी ओर १५ वीं शताब्दी में रचित खीमा कृत चैत्यपरिपाटी में, शीलविजयजी तीर्थमाला संवत् १७२२ (ईस्वीसन् १६६६ के पश्चात्) में, तथा सौभाग्य विजयजी की तीर्थमाला संवत् १७५० (ईस्वीसन्-१६९४) में आरासण में विमलमंत्री कृत आदिनाथ के मंदिर का विमलवसही किंवा विमलविहार का  निर्देश है। मंत्रीश्वर के मंदिर बनवाने के पश्चात् यहाँ ११ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर १३ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक संगमरमर के अन्य चार मंदिर बने होने का लेख है। आरासण में प्रवेश करन पर उत्तर-दक्षिण के मार्ग के अंत में सर्वप्रथम भगवान नेमिनाथ का महामंदिर दृष्टि में आता है। : नेमिनाथ भवन से ठीक ईशान में इस समय शान्तिनाथ का मंदिर आता है। प्रस्तुत मंदिर से अग्निकोण में महावीर स्वामी का मंदिर है, और उसके बगल में अग्निकोण में पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर है। : जबकि संभवनाथ का मंदिर नेमिनाथ जिनालय से व पूरे समूह से थोड़ी दूर है, लगभग वायव्यकोण में स्थित है, ये पांचो मंदिर उत्तराभिमुख हैं, आलीशान और ऐतिहासिक हैं। इनका स्थापत्य कला आज भी दर्शनार्थियों को आबू स्थित देलवाड़ा के मंदिरों के समान ही मोहित करती है।

श्री नेमिनाथ भगवान का जिनालय

यहाँ स्थित पाँचों मंदिरों में यह मंदिर सबसे बड़ा, उन्नत और विशाल है। यह मंदिर मूल गर्भगृह, विशाल गूढ़ मंडप, दशचोकी, सभामंडप, गवाक्ष, शृंगारचोकी और दोनों ओर के बड़े गर्भगृह चौवीस देवकुलिकाओं, विशाल रंगमंडप, शिखर और कोट से युक्त है। मंदिर का द्वार उत्तर दिशा में है। मंदिर में बाहर के द्वार से प्रवेश करने पर रंगमंडप तक जाने की सीढ़ियाँ हैं। सीढ़ियों पर नोबतखाने का झरोखा है। मंदिर का शिखर उन्नत और विशाल है। इसका शिखर तारंगा के पहाड़ पर स्थित श्री अजितनाथ भगवान के जिनालय के शिखर के जैसा है। समग्र शिखर संगमरमर पत्थर का बना हुआ है।

मंदिर की मूर्तियाँ और लेख

जिनालय की संरचना इतनी प्रामाणिक और सुन्दर है कि, मन्दिर के प्रवेश द्वार से भी मूलनायक भगवान के दर्शन हो सकते हैं।

मूलगर्भगृह में मूलनायक श्री नेमिनाथ भगवान की भव्य और मनोहर मूर्ति बिराजमान है। उनके आसपास पाषाण का एकतीर्थी का बड़ा परिकर था, और इन्द्रों की दो बड़ी प्रतिमा भी थी, जीर्णोद्धार के समय खण्डित होने से मन्दिर की पीछे की परिधि में रखी हुई दिखाई देती हैं। इन मूलनायक की मूर्ति के प्रस्तरासन पर संवत् १६७५ में आचार्य विजयदेवसूरि के द्वारा उसकी प्रतिष्ठा होने का लेख है।

गूढ़ मंडप में एक बड़े परिकरयुक्त चार कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाएँ हैं। उसमें मुख्य द्वारा के पास कायोत्सर्ग पर संवत् १२१४ के लेख हैं। उसमें “आरासाणनगर-नेमिनाथ चैत्य में इन कायोत्सर्ग प्रतिमाओं की स्थापना की गई थी ऐसा लिखा हुआ है। अन्य दो कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा पर संवत् १२१४ के लेख हैं।

संवत् १३१० के लेखवाला एक १७० जिनों का सुन्दर पट है। परिकर से अलग हुई चार कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ और १ यक्ष की प्रतिमा है। कायोत्सर्ग प्रतिमा के पास भींत तथा स्तम्भ में दो मूर्तियाँ है १ धातु की पंचतीर्थी है।

यहाँ छ: चोकी के स्थान पर दो श्रृंखलारूप में दस चोकी है।  उसमें बायीं ओर की चोकी के गवाक्ष में नंदीश्वरद्वीप की सुन्दर रचना की गई है। उसपर संवत् १३२३ लेख है। उसके समीप ही एक सुन्दर गवाक्ष में एक कायोत्सर्ग प्रतिमा है, जिसपर एक जिन प्रतिमा बिरजामान है।

दायीं ओर की छ: चोकी की एक देरी में अंबाजी माता की बड़ी मूर्ति है। छ: चोकी के बायीं ओर नक्काशी युक्त एक स्तम्भ पर संवत् १३१० का वैशाख सुदी ५ का लेख है। वह स्तम्भ ‘पोरवाल श्रेष्ठी आसपाल ने आरासणनगर के अरिष्टनेमि जिनालय में चंद्रगच्छीय श्री रत्नप्रभसूरि के उपदेश से एक स्तम्भ यथाशक्ति बनवाया था’ ऐसा उल्लेख है।  छ:चोकी के सामने वाले दो गवाक्ष रिक्त हैं। उनमें से एक में रिक्त परिकर है। पास के तीन गवाक्ष मूर्ति रहित हैं। सभामंडप में बायीं ओर गर्भगृह में मूलनायक श्री आदीश्वर भगवान की संगमरमर पाषाण से बनी एकतीर्थी परिकरयुक्त मनोहर प्राचीन प्रतिमा है। इस मूर्ति की श्री विजयदेवसूरि द्वारा संवत् १६७५ में प्रतिष्ठा करने का लेख है। उस गर्भगृह के पास के दो गवाक्ष में मूर्तियाँ नहीं है परन्तु संवत् १३३५ के लेख से युक्त परिकर स्थित हैं। दायीं ओर के गवाक्ष में मूलनायक श्री पार्श्वनात भगवान की प्राचीन एकतीर्थ परिकरयुक्त भव्य और दर्शनीय प्रतिमा है। यह प्रतिमा इतनी बड़ी है कि उसके नीचे खड़े रहकर भगवान के ललाट की पूजा नहीं कर सकते, इसलिए उसके पास लकड़ी से बनी सीढ़ी रखी है।

मूलगर्भगृह के पीछे के भाग की मंदिर की दीवार पर सुन्दर नक्काशी है। मंदिर के पीछे की परिधि में परिकर, प्रस्तरपट के सैंकड़ों टुकड़े और गादी के टुकड़े, कायोत्सर्ग प्रतिमा, परिकर से अलग हुई खण्डित-अखण्डित इन्द्र प्रतिमा, अनेक स्तम्भयुक्त नक्काशीयुक्त सुन्दर तोरण आदि पड़े हुए हैं। तथा, इनमें जिनमातृ पट, चौवीसी के पट है, जिसमें लगभग सौ जितने लेख भी हैं। एक लेख संवत् १२०४ का है अर्थात् पहले यह मन्दिर बना होगा, क्योंकि उसमें ‘आरासण-अरिष्टनेमिचैत्य’ ऐसा स्पष्ट उल्लेख लिखा हुआ पढ़ा जा सकता है।

मंदिर के पिछले भाग में गवाक्ष में ‘समड़ीविहार’ के पट के नीचे का अर्धभाग चिपकाया हुआ है।

इस पट में लंका का राजा बैठा है। उसकी गोद में एक राजकुमारी है। भेंट लेकर खड़े जैन गृहस्थ, पादुका और अश्व आदि की आकृतियाँ संगमरमर पत्थर पर उत्कीर्ण की गई हैं।

शेष ऊपर का आधा पट, यहाँ देरियों के पास है जहाँ देरियों के प्रस्तरासन आदि निकाले हुए दीवार के पास रखे हैं, उसमें समुद्र, नर्मदा नदी, झाड़ी, चील, व्याध, जैनाचार्य और जहाज की सुन्दर आकृति उत्कीर्ण है।

इन दोनों भाग को जोड़कर एक ही स्थान पर रखना चाहिये जिससे लेख के साथ शिल्पाकृति सुरक्षित रहे, आबू पर स्थित मंदिर के पट जैसा यह पट है, उसपर संवत् १३३८ का लेख है।

इस देवालय की जगती में-भिट्ट में चारों और गजथर है। तथा नर-नारी के युग्म की नरथर है। इसके अलावा देव, यक्ष, यक्षिणी के बड़ी पूतले चारों ओर बैठाये गये हैं। कुछ स्थान पर युगलों की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण दिखाई देती हैं।

मंदिर में घूम्मट के अमलसार के नीचे चारों ओर सिर रखे हुए हैं। मंदिर की देवकुलिकाओं के अग्रभाग के किनारे पर स्थित स्तम्भ, तथा देवगृह के प्रागंण के स्तम्भ आबू में स्थित देलवाडा की विमलवसही मंदिर के जैसे  ही हैं।

रंगमंडप के दूसरी ओर ऊपर के द्वार मे तथा किनारे के दो स्तम्भों के बीच की कमान पर मगर मुखाकृति स्थापित है। जो तोरण के ऊपर स्थित पत्थर के नीचे के भाग को स्पर्श करते हैं। यह तोरण आबू स्थित विमलवसही मंदिर के तोरण जैसी ही है।

मंडप के स्तम्भों की तथा प्रागंण के स्तम्भों की रिक्त कमान, जो गूढमंडप की श्रृंखला के ठीक सामने स्थित है और ऊपर की पट्टी के नीचे स्थित अर्गला से पता चलता है कि, पहले ऐसे अन्य कुछ तोरण यहाँ थे किन्तु लगता है वे नष्ट हो गये हैं।

मंदिर में कुल मिलाकर ९४ स्तम्भ हैं। जिसमें २२ स्तम्भ सुन्दर नक्काशीवाले हैं। और अन्य स्तम्भ सामान्य हैं। नक्काशीयुक्त स्तम्भों में देव-देवी तथा विद्याधरों की आकृतियाँ उत्कीर्ण है।

रंगमंडप में पूजा-महोत्सव के समय स्त्रियों के बैठने के लिए झरोखे भी हैं।

यहाँ सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पुराने काम के स्थान पर नया काम भी उतनी ही सफाई से किया हुआ दिखाई देता है। सभामंडप के घूम्मट में तीन सौ वर्ष पहले किया गया रंग रोगान का काम है जो आज भी ताजा ही दिखाई देता है। रंगमंडप में भी नक्काशी को रंगा गया है। इस रंगमंडप एवं चोकी की नक्काशी आबू स्थित देलवाडा के मंदिर की नक्काशी जैसी अत्यंत सुन्दर है।

मंडप के मध्यभाग पर आधुनिक छत है, जिसका आकार घूम्मट जैसा है। उसपर रंग किया हुआ होने के कारण शोभायमान है। आसपास एक बाँस का पिंजरा रखा है। जिसके कारण उसमें पक्षी तथा चमगादड़ आदि प्रवेश नहीं कर सकते।

मंदिर की देवकुलिका की दीवारें अति प्राचीन है, परन्तु शिखर तथा गूढमंडप के बाहर का भाग बाद में बनाया हुआ लगता है। उसे ईंट से चुनवाकर प्लास्टर कर संगमरमर के समान साफ किया गया है। मंडप के दूसरे भाग की छत तथा कमरे की छत सादी या अर्वाचीन है। मूलगर्भ के दायीं ओर ऊपर के भाग में पट्टी को सहारा देने वाली जो तीन कमान बनाई गई हैं, वे साथ में स्थित स्तम्भ जितनी लम्बी है।

मन्दिर निर्माता

श्री धर्मसागर गणि द्वारा रचित ‘तपागच्छ-पट्टावली’ में लिखा है कि, वादिदेवसूरि ने (विक्रम संवत् ११७४ से १२२६) आरासण में श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा की थी।

‘सप्तति’ ग्रंथ अनुसार पासिल नामक श्रेष्ठी ने यह नेमिनाथ भगवान का मंदिर बनवाया था और श्री वादिदेवसूरि ने उसकी प्रतिष्ठा की थी।

श्री महावीरस्वामी भगवान का मंदिर

श्री नेमिनाथ भगवान के जिनालय के पूर्व की ओर पहड़ी से नीचे के भाग में उत्तरदिशा की द्वारवाला श्री महावीरस्वामी भगवान का मंदिर है। इस मंदिर में अन्य पूर्व और पश्चिम की ओर के द्वार भी हैं, परन्तु उन्हें बंद रखा जाता है। पूर्व की ओर का द्वार पेढ़ी के आगे चोक में आता है। इस मंदिर का मूलगर्भगृह, गूढमंडप, छ: चोकी, सभामंडप, श्रृंगारचोकियाँ, उसके सामने आठ गवाक्ष और दोनों ओर आठ-आठ देवकुलिकाएँ कुल मिलाकर २४ देवकुलिकाएँ व शिखर से सुशोभित है। पूरा मंदिर संगमरमरपाषाण से बना है। मूलगर्भगृह में मूलनायक श्री महावीरस्वामी भगवान की एकतीर्थ परिकरयुक्त मनोहर और भव्य प्रतिमा बिराजमान है। मूलनायक की मूर्ति पर संवत् १६७५ का श्री विजयदेवसूरि द्वारा नगर में प्रतिष्ठा करने का उल्लेख है। मूलनायक परिकर के आसन के नीचे संवत् ११२० का प्राचीन लिपि में लेख है, उसमें भी आरासण नाम का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि, यह मंदिर लगभग उस समय में या उससे पूर्व में बना हुआ होना चाहिये।

मूलनायक के दोनों ओर एक-एक यक्ष तथा एक अंबाजी की प्रतिमा है।

गूढ़ मंडप में परिकरयुक्त दो भव्य कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाएँ हैं, उन दोनों पर आलेखित लेख कुछ जीर्ण हो गये हैं परन्तु उसका संवत् १११८ का होना स्पष्ट दिखाई देता है। यहाँ से प्राप्त हुए प्रतिमालेखों में यह लेख सबसे प्राचीन है। इस लेख से भी प्राचीन ऐसे संवत् १०८७ के लेख का उल्लेख मुनि श्री जयंतविजयजी ने अपनी पुस्तक ‘कुंभारिया’ के परिशिष्ट में किया है। उस लेख से ज्ञात होता है कि यह मंदिर संवत् १०८७ से पूर्व निर्मित हो चुका था।

मूलगर्भगृह की कमानों में दोनों ओर एक एक छोटी कायत्सर्गस्थ प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई हैं। वहाँ परिकर से अलग हुई अन्य ३ कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाएँ भी हैं।

सभी देवकुलिका और गवाक्ष कुल मिलाकर २४ हैं। उनमें से एक में परिकर नहीं है, तीन देरियों में जो परिकर हैं वे अपूर्ण हैं। एक में तीन तीर्थी का परिकर है। शेष सभी देरियों में पंचतीर्थी के पूर्ण परिकर बने हुए हैं। देरियों के प्रस्तरासन में प्राय: सभी पर संवत् ११४० से संवत् ११४५ तक के लेख प्रतीत होते हैं।  उपर्युक्त परिकरों में जिनप्रतिमाएँ नहीं थी किन्तु महुडियापादर नामक गाँव के खण्डित जिनालय से प्राप्त हुई प्रतिमाएँ यहाँ प्रतिष्ठित की गई हैं।

कुंभारिया से लगभग २० गाँव जितनी दूरी पर दक्षिणा दिशा में दांता राज्य की सीमा में महुडियापादर नामक गाँव है। उसके पास के जंगल में लगभग आधी मील जितने जगह में जिनालय के खंडहरों में जब एक बड़े पत्थर को हटाया गया तो एक तलघर मिला। दांता के राजा को यह ज्ञात होने पर उसने उस स्थान पर सुरक्षा हेतु व्यवस्था की। संवत् २००० (ईस्वीसन् १९४४) में दांता राज्य की ओर से जंगल साफ करवाकर तलघर को खोला गया तो उसमें से जिनप्रतिमाएँ प्राप्त हुई। उन सभी प्रतिमाओं को दांता में लाया गया। वे प्रतिमाएँ श्वेताम्बर पंथ की होने का निर्णय होने पर राज्य ने उन सभी प्रतिमाओं को दांता के श्री जैन संघ को सौंप दिया। वे प्रतिमाएँ कुंभारिया जिनालय में स्थापित करने की सूचना मिलने पर दांता के श्री संघ ने अहमदाबाद की सेठ आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी को इसकी सूचना दी और कुंभारियाजी में भी सूचना भेजी। संवत् २००० (ईस्वीसन् १९४४) के माह महीने की कृष्णपक्ष १३ के दिन उन सभी प्रतिमाओं को बैलगाडी में रखकर कुंभारियाजी लाया गया। चक्षु-टीका से विभूषित कर संवत् २००१ ज्येष्ठ शुक्ला १० के दिन अठारह अभिषेक कर उन सभी प्रतिमाओं को श्री महावीरस्वामी भगवान के जिनालय में स्थापित किया गया।

मंदिर के दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश करने पर बायीं ओर एक समवसरण की देरी है। उसमें प्रतिमा नहीं है परन्तु समवसरण की नक्काशीयुक्त रचना पीले संगमरमर पत्थर पर उत्कीर्ण की गई है, और उस छत्रीयुक्त समवसरण में तीन गढ़ और पर्षदा की स्पष्ट आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं।

रंगमंडप के बीच के भाग में ऊँचाई पर नक्काशीयुक्त एक घुम्मट है। जो टूटा हुआ है, वह रंगा-पुता हुआ है। इस घुमम्ट का आधार अष्टकोणाकृति में स्थित परसाल है।

तथा वे आबू के विमलशाह देवालय के स्तम्भ जैसे हैं। शेष सादा हैं।  पहले इस स्तम्भ के प्रत्येक जोड़ को मकर मुख से निकलने वाले तोरणों से सज्जित किया गया था परन्तु इस समय एक को छोड़कर सभी तोरण नष्ट हो गये हैं। रंगमंडप के दूसरे भागों की छत के अलग अलग विभाग किये गये हैं, जिसपर आबू के विमलशाह के जिनालय में हैं ऐसे जैनचरित्रों के अलग अलग दृश्य आलेखित किये गये हैं।

छ: चोकी तथा सभामंडप और परिधि की देरियों के बीच में दोनों ओर छत के १४ खण्डों में बहुत नक्काशी की गई है। उसमें पाँच खण्डों  सुन्दर भाव उत्कीर्ण किये गये हैं।

(१)रंगमंडप और परिधि की देरी के बीच की छत में दायीं ओर सातवें खण्ड में – अतीत और भावि चौवीसी के माता-पिता प्रत्येक छत्र पर उत्कीर्णित हैं।

(२)दूसरे खण्ड में –वर्तमान चौवीसी तथा उनके माता-पिता हैं। उसी खण्ड में चौदह स्वप्न हैं। इन्द्र महाराज ने भगवान को मेरु पर्वत पर ले जाकर गोद में बैठाया है और दोनों ओर से इन्द्र महाराज कलशों द्वारा अभिषेक कर रहे हैं। कमठ तापस पंचाग्नी तप कर रहा है उस समय पार्श्वकुमार सेवक द्वारा लकड़ी में से सर्प निकालकर बताता है। उसके बाद धरणेन्द्र भगवान को नमस्कार करने आया है। पार्श्वनाथ प्रभु का समवसरण तथा अनुत्तर विमान के भव आदि के भाव उत्कीर्ण किये गये हैं।

(३)तीसरे छत में – श्री शान्तिनाथ भगवान का समवसरण है उनके माता-पिता वगैरह हैं- दूसरी ओर श्री नेमिनाथ भगवान के पंचकल्याणक का भाव उत्कीर्ण किया गया है।

(४)छठे खण्ड में – महावीरस्वामी भगवान के पिछले सत्ताईस भव तथा पंचकल्याणक और उनके जीवन से सम्बन्धित विशिष्ट घटनाएँ है और चंदनबाला के प्रसंग, जैसे कि तपस्या, कान में कील ठोकना, चंडकौशिक नाग आदि की घटनाएँ हैं। सातवें खण्ड में ऋषभदेव भगवान के पंचकल्याणक के भाव, तथा चार-पाँच हाथी-घोड़े वगैरह के विशिष्ट भाव हैं. सभी भावों पर नाम लिखे हुए हैं।

(५)बायीं ओर के सातवें खण्ड में –आचार्य महाराज सिंहासन पर बैठे हुए हैं। शिष्य नमस्कार कर रहा है और गुरु उनके सिर पर हाथ रखते हैं। तथा, बीच में दूसरे आचार्य महाराज, जो हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहे हैं उनके सामने स्थापनाचार्यजी भी हैं।

इसीप्रकार पहली छत में भी ऐसे ही भाव हैं।

एक छत में –आचार्य श्री व्याख्यान दे रहे हैं और उनके आगे बैठकर चतुर्विध संघ उपदेश सुन रहा है। दूसरे भाग में आचार्य महाराज साधुओं को देशना दे रहे हैं ऐसा भाव है। तीसरे में देवियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। उसके पास के भाग में देव नृत्य कर रहे हैं। सातवें भाग में भगवान महावीरस्वामी देशना दे रहे हैं। वहाँ गणधर भगवंत बैठे हुए हैं और श्रोताजन अलग अलग वाहनों पर सवारी कर देशना सुनने आ रहे हैं ऐसे भाव आलेखित हैं।

इन सभी भावों को समझाते हुए नीचे संगमरमर पत्थर पर उत्कीर्ण किया गया है और उसमें रंग भरा गया है। ऐसे भावों का आलेखन अन्यत्र देखने को नहीं मिलता।

सभामंडप से बाहर निकलने पर जो चोकी आती है उसमें दो गवाक्ष हैं और ऊपर छोटे छोटे छ: घुम्मट हैं। उसमें सभामंडप के द्वार, घुम्मट आदि अद्भुत कलाकृतियुक्त हैं। उसमें संगमरमर के जो पर्दे बनाय गये हैं उनकी प्रतिकृति कागज पर भी बनाना असंभव है। ऐसा घुम्मट भाग्य से ही अन्यत्र देखने को मिलेगा। बाकी के पाँच घुम्मट में भी अद्भुत नक्काशीयुक्त भाव उकेरे गये हैं। उसमें लटकता हुआ लोलक कमल है और पर्दे भी उत्कीर्ण किये गये हैं।

चोकी से नीचे उतरने पर रंगमंडप के घुम्मट की नक्काशी आश्चर्यजनक है। उसमें मानो सीप जड़ी गई हों ऐसा प्रतीत होता है। घुम्मट के बीच में संगमरमर का लटकता हुआ झुमर कमल आकृतिरूप में उत्कीर्ण है। ये कलाकृतियुक्त दृश्य आबू के देलवाड़ा के मंदिरों से भी सुन्दर प्रतीत होते हैं।

देवकुलिका की दीवार वर्तमान में बनायी गयी है, परन्तु शिखर पुराने पत्थरों के टूकड़ों से बना है। गूढ़मंडप पुराना है। उसमें पहले दोनों ओर द्वार तथा सीढ़ियाँ थीं। वर्तमान में द्वार बंद कर दिये गये हैं। उसके स्थान पर मात्र दो जालियाँ रखी गई हैं, जिससे अंदर प्रकाश आ सकता है।  गूढमंडप की द्वारशाख में बहुत प्रकाश आ सकता है। गूढमंडप की द्वारशाख में बहुत नक्काशी की गई है परन्तु देवकुलिका की द्वारशाख पर नहीं है।

बायीं और या पश्चिम में दो पुराने स्तम्भों के साथ दो नये स्तम्भ हैं, जो ऊपर के खण्डित वर्ग का आधार हैं। दक्षिण कोने के पूर्व की ओर स्थित तीसरी तथा चौथी देवकुलिका की द्वारशाख दूसरी देवकुलिकाओं की अपेक्षा अधिक नक्काशीयुक्त हैं। तीसरी देवकुलिका के आगे, ऊपर के वर्ग के नीचे की ओर स्पर्श करनेवाली एक कमान के आधाररूप दो स्तम्भों पर दोनों ओर ‘कीचक’ (ब्रेकेट्स) देखने को मिलते हैं। यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है, क्योंकि अन्यत्र कहीं अग्रभाग में या देवकुलिका में यह देखने को नहीं मिलता।

श्री महावीरस्वामी भगवान के पास स्थित मूलगर्भगृह में दो स्तम्भों पर सुन्दर नक्काशीयुक्त तोरण था वर्तमान में वह समवसरण के द्वार के बाहर रखा गया है। उसके ऊपर संवत् १२१३ का एक लेख है।

श्री पार्श्वनाथ भगवान का मंदिर

श्री महावीर स्वामी भगवान के जिनालय के पूर्व की ओर श्री पार्श्वनाथ भगवान का भव्य और विशाल मंदिर है। इस मंदिर की संरचना श्री नेमिनाथ भगवान के मंदिर के जैसी है। इस मंदिर की पश्चिम दिशा का द्वार पेढ़ी के आगे स्थित चोक में है। और उस द्वार से विशेष आवागमन होने के कारण उत्तर दिशा का द्वार बंद रखा गया है।

यह मंदिर मूलगर्भगृह, गूढमंडप, छ: चोकी, सभामंडप, शृंगारचोकियों, दोनों ओर २४ देवकुलिकाएँ, १ गवाक्ष और शिखरयुक्त निर्मित है। पूरा मंदिर संगमरमर पत्थर से बना है।

मूलगर्भगृह में मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान की सुंदर परिकरयुक्त दो कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ हैं। उनपर संवत् ११७६ के लेख हैं। बायीं ओर तीनतीर्थी वाला एक बड़ा रिक्त परिकर स्थापित किया हुआ है। उसमें मूलनायक की मूर्ति नहीं है। परिकर से अलग हुई ३ कायोत्सर्ग प्रतिमाएँ और एक अंबाजी माता की मूर्ति भी है।

छ: चोकियों में दोनों ओर के दो गवाक्षों में से एक गवाक्ष में पूरा परिकर, स्तम्भ सहित तोरण वगैरह सुंदर नक्काशी से भरे हैं।

गूढ़मंडप और सभामंडप के घुम्मट, छ: चोकी का सम्मुखभाग, छ: चोकी और सभामंडप के चार स्तम्भ, एक तोरण, दोनों ओर की प्रत्येक देरी के द्वार, स्तम्भ, घुम्मट, ऊपर के शिखर और प्रत्येक गुम्बद में सुंदर नक्काशी की गई है। स्तम्भों पर देवियों, विद्याधरों तथा अन्य उत्कीर्णन हैं।

मंदिर में उत्तर द्वार से प्रवेश करने पर दायीं ओर मकराणा के नक्काशीयुक्त दो स्तम्भों पर मनोहर तोरण है। उनमें से एक स्तम्भ पर संवत्-११८१ का लेख है।

गवाक्ष में प्रतिमा नहीं है। एक गवाक्ष में मात्र परिकरयुक्त गादी है।

दो देहरियो में रिक्त प्रस्तरासन है। परिकर नहीं है। दो देरी में अपूर्ण परिकर हैं। दो देरियों में नक्काशीयुक्त स्तम्भ सहित सुंदर तोरण लगी हैं। अन्य देरियों में परिकर और प्रस्तरासन है। एक गवाक्ष में प्रस्तरासन और परिकर की गादी है। देरियों में परिकर की गादी पर अधिकांशत: तेरहवीं शताब्दी के मध्यभाग के लेख हैं। संवत्-१२५९ के लेख में ‘आरासणमां मंडलिक परमार धारावर्षदेवनुं विजयी राज्य’ इसप्रकार लिखा हुआ है। अंतिम गवाक्ष के प्रस्तरासन की गादी पर संवत्-११६१ का लेख है।

गूढमंडप का मुख्य द्वार और नक्काशीयुक्त दोनों देरियों के द्वारों के ऊपर च्यवन कल्याणक की भावभंगिमा और १४ स्वप्न उत्कीर्ण हैं।

इस मंदिर के स्तम्भ तथा संरचना श्री महावीरस्वामी भगवान के मंदिर जैसी है। परन्तु श्री शान्तिनाथ भगवान के मंदिर की भाँति इसमें मात्र चार तोरण हैं। जिसमें से देवकुलिका की परसाल के सामने स्थित सीढ़ी पर स्थित ही वर्तमान में बचा हुआ है।

इसमें श्री नेमिनाथ भगवान के चैत्य की भांति घुम्मट के आसपास बाँस की पट्टी लगी हैं, देवकुलिका के बाहर का भाग तथा गूढमंडप का एक भाग अर्वाचीन है। सीढी के साथ लगे हुए दो स्तम्भों के बीच एक पुरानी द्वारशाख गूढमंडप के पश्चिम की दीवार में चुनवाई गई है। किन्तु यह द्वार बंद नहीं किया गया है। दीवार के दूसरी ओर ऐसी ही द्वारशाखएँ लगाने का प्रयत्न किया गया है ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि भीत के आगे दो स्तम्भ खड़े किये गये हैं।

मूल देवगृह की द्वारशाख पर सुन्दर नक्काशी की गई है, परन्तु उसपर बाद में गुजराती रीति के अनुसार रंग लगाया गया है।

श्री शांतिनाथ भगवान का मंदिर

श्री महावीरस्वामी भगवान के जिनालय के आगे मार्ग से हटकर श्री शान्तिनाथ भगवान का जिनालय स्थित है। उसकी संरचना भगवान महावीर के जिनालय जैसी ही है। इस जिनालय के पूर्व, पश्चिम और उत्तर के द्वार विशेष कार्य के अलावा बंद रहते हैं। मात्र पूर्व दिशा का द्वार आवागमन के लिए प्रयुक्त होता है।

यह मंदिर मूलगर्भगृह, गूढमंडप, छ: चोकी, सभामंडप, मुख्य द्वार के दोनों ओर स्थित १६ देवकुलिकाएँ और १० गवाक्षों तथा शिखर से सुशोभित है। मंदिर का पिछला भाग खुला है। तीनों ओर के द्वार की शृंगारचोकियाँ वगैरह सभी संगमरमर पत्थर से बने हैं।

मूलगर्भगृह में मूलनायक श्रीशांतिनाथ भगवान की परिकर रहित प्रतिमा बिराजमान है।

गूढमंडप में परिकर से अलग हुई ४ कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा, २ इन्द्र प्रतिमा और १ हाथ जोड़कर खड़े हुए श्रावक की मूर्ति है।  ये सभी गूढमंडप में खुले में रखी गई हैं।

मूलनायक के नीचे की गादी पर संवत् १३०२ का लेख है, परन्तु वह गादी जीर्णोद्धार के समय वहाँ लगवाई गई होगी ऐसा प्रतीत होता है। आरासण के श्रावक ने उस गादी का निर्माण करवाया है और उसपर श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित करवाने की जानकारी मिलती है। जबकि मूलनायक श्री शांतिनाथ भगवान हैं।

छ: चोकियों में गूढमंडप के मुख्य द्वार के दोनों ओर सुन्दर नक्काशीयुक्त दो गवाक्ष हैं। उनमें से एक में एकतीर्थी का रिक्त परिकर लगा हुआ है।

छ: चोकी और सभामंडप के गुम्बद तथा स्तम्भों पर आबू के देलवाडा मंदिरों के जैसी सुन्दर नक्काशी की गई है। उनमें में भी छ: स्तम्भों में तो विशेष नक्काशीयुक्त हैं।

सभामंडप की एक तोरण नक्काशीयुक्त है। गूढमंडप में प्रवेश द्वार पर , उसके पास के स्तम्भ पर, और छ: चोकी के नीचे के भाग में भी नक्काशी की गई है।

छ: चोकी और सभामंडप के दोनों ओर की छतों के १२ खण्डों में भी आबू-देलवाड़ा के मंदिर के समान भिन्न प्रकार के सुन्दर भावभंगिमा उत्कीर्ण की गई है। छत में जो भावभंगिमा उत्कीर्ण की गई है उसमें विशेषत: पंचकल्याण सहित तीर्थंकरों के विशिष्ट जीवन प्रसंग, कल्पसूत्र में निर्देशित घटनाएँ, स्थूलभद्र का प्रसंग वगैरह भावभंगिमा उत्कीर्ण है। प्रत्येक का भावार्थ उनके नीचे बड़े अक्षरों के उत्कीर्ण किया गया है। उन अक्षरों में रंग नहीं होने के कारण दूर से नहीं पढ़ा जा सकता।

प्रत्येक देरी और गवाक्ष मों प्रस्तरासन और परिकर है। उनमें से कुछ देरियों में परिकर तोड़कर उनके भाग इधर-उधर बिखरे हुए रखे हैं। इस मंदिर की देरियों की प्रतिमाओं पर संवत् १०८७, संवत् १११० तथा उन देरियों पर तथा उनके अंदर स्थित प्रस्तरासन की गादियों पर संवत् ११३८ के लेख हैं। यह मूल मंदिर तो संवत् १०८७ या उससे पहले बना था ऐसा प्रतीत होता है।

यहाँ के सभी मंदिरों से प्राप्त लेखों में इस जिनालय के लेख प्राचीन दिखाई देते हैं। उसमें संवत् १०८७ का लेख सबसे प्राचीन है।

मंदिर में बायीं ओर के कोने में चतुर्द्वार की देरी में समवसरण की आकृतिवाले सुन्दर नक्काशीयुक्त प्रस्तरासन पर नीचे दो खण्ड में चारों दिशा में तीन-तीन जिन प्रतिमाएं उकेरी गई हैं। उनपर एक ही पत्थर में तीन गढयुक्त चतुर्मुख (चार प्रतिमावाला) समवसरण स्थित है जिसपर लेख है।

इस मंदिर की संरचना यहाँ के श्री महावीरस्वामी भगवान के मंदिर जैसी ही है। अंतर मात्र इतना है कि, ऊपर की कमान के दोनों ओर भगवान महावीरस्वामी के मंदिर की भाँति तीन गवाक्ष नहीं है अपितु चार हैं। प्रत्येक गवाक्ष में संवत् ११३८ के लेख हैं और एक लेख संवत्-११४६ का है। तथा , मंडप के आठ स्तम्भ, जो अष्टकोणाकृति में हैं वे घुम्मट को आधार देते हैं। उसके ऊपर चार तोरण है। ये सभी तोरण टूट गई हैं। मात्र पश्चिम की ओर का अवशेष बचा हुआ है।

पीछे के खाली भाग में एक देरी है, उसमें नंदीश्वर द्वीप की रचना है। कुछ छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी हैं। परन्तु अधिकांशत: खण्डित हैं। बाहर चबूतरे के ऊपर स्थित गवाक्ष की दीवार में चिपका हुई मूर्ति सूर्य यक्ष की है, कुछ लोग उसे ‘गणपति की मूर्ति’ भी कहते हैं। उसके दोनों ओर दीवार में अन्य कुछ मूर्तियाँ बनाई गयी हैं। उनमें से एक मूर्ति चँवरधारी की है।

इस शांतिनाथ भगवान के मंदिर में वस्तुत: सर्वप्रथम मूलनायक श्री ऋषभदेव की प्रतिमा प्रतिष्ठित रही होगी। मुनि श्री जयंतविजयजी की पुस्तक कुंभारिया के परिशिष्ट में लिखे गये संवत् ११४८ के लेखांक : २८(१४/६) में इस मंदिर का श्रीमदादिजिनालये ऐसा उल्लेख किया गया है। इसके अलावा संवत् रहित लेखांक: ३० (१५०) में ऋषभालये ऐसा उल्लेख मिलता है। अत: संवत् ११४८ के बाद किसी समय यहाँ मूलनायक का परिवर्तन हुआ होगा।

श्री संभवनाथ भगवान का मंदिर

श्री नेमिनाथ भगवान के जिनालय के दक्षिण में लगभग दो सौ मीटर की दूरी पर श्री संभवनाथ भगवान का मंदिर स्थित है। सभी मंदिरों से इस मंदिर की संरचना अलग है और यह आकार में छोटा भी है।

यह मंदिर मूलगर्भगृह, गूढमंडप, सभामंडप, शृंगारचोकी, कोट तथा शिखरयुक्त है। मंदिर में प्रदक्षिणा पथ- परिधि नहीं है। पत्थर से बना है। प्रत्येक द्वार में प्राय: नक्काशी है और शिखर में भी नक्काशी की गई है। मूलगर्भगृह में मूलनायक श्री संभवनाथ भगवान की मूर्ति बिराजमान है। उसे एक प्राचीन वेदी पर स्थापित किया गया है। कुछ लोग उस मूर्ति पर सिंह का चिह्न होने के कारण उसे मूलनायक श्रीमहावीरस्वामी की मूर्ति भी बताते हैं, परन्तु इस समय यह मंदिर श्री संभवनाथ भगवान का कहलाता है। प्राचीन ग्रंथों में और ‘तीर्थमालाओं’ में संभवनाथ के मंदिर का उल्लेख नहीं है। वस्तुत: प्राचीनकाल की चित्रशैली में सिंह की आकृति घोड़े जैसी ही होती है अतएव यह मंदिर ‘श्रीमहावीरस्वामी का मंदिर’ होगा यह प्रतीत होता है।

गूढमंडप के एक गवाक्ष में परिकर के साथ पंचतीर्थी की एक प्रतिमा स्थापित की गई है। गूढमंडप के प्रत्येक गवाक्ष में मूर्ति रहित रिक्त १० परिकर हैं, तथा एक श्रावक-श्राविका का युगल है।

आरासण के इन चार मंदिरों का शिल्प-स्थापत्य, स्तम्भ, कमान, छतों में आलेखित भाव-भंगिमा और संरचना आबू स्थित देलवाडा के विमलवसही के मंदिर जैसी है अर्थात् संवत् १०८८ में विमलवसही की प्रतिष्ठा हुई उससे एक वर्ष पहले यहाँ के श्रीशांतिनाथ भगवान के मंदिर से मिलने वाली प्रथम देरी के संवत् १०८७ के लेख के आधार पर यह कहा जा सकता है कि, उस समय से पहले आरासण में मंदिर निर्माण प्रारम्भ हो गया था।

उपलब्ध ऐतिहासिक उल्लेख

ये मंदिर किसने  बनवायें इसके विषय में कोई निश्चित संदर्भ नहीं मिलता, तथापि श्री शीलविजयजी अपनी ‘तीर्थमाला’ में लिखते हैं कि,

“आरासणि छिं विमलविहार, अंबादेवी भुवन उदार.” (देखो, प्राचीन तीर्थमाला भाग-१, पृष्ठ-१०३, कडी-३१)

श्री सौभाग्यविजयजी द्वारा संवत् १७५० में रचित ‘तीर्थ माला’ में भी लिखा है, “आरासण आबूगढे जे नर चढें रे”

सालगिरह

मूलनायक नेमिनाथ भगवान की सालगिरह महा सुदी ५ के दिन मनाई जाती है।

प्रसंग

मूलनायक नेमिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा सालगिरह महा सुदी – ५
कल्याणक-च्यवन कल्याणक आश्विन वदी – १२
जन्म कल्याणक श्रावण सुदी – ५
दीक्षा कल्याणक श्रावण सुदी – ६
केवलज्ञान कल्याणक भाद्रपद वदी – ०))
निर्वाण कल्याणक आषाढ़ सुदी – ६

समय पत्रक

जिनालय खुलने का समय सुबह ०६-३० बजे
प्रक्षालन की बोली का समय सुबह ०९-३० बजे
मुख्य जिनालय में प्रक्षालन पूजा सुबह ०९-३० बजे
पूजा का समय सुबह सुबह १०-०० बजे
अन्य जिनालय में प्रक्षालन पूजा सुबह ०७-३० बजे
आंगी (मुख्य जिनालय में) सायं ०४-०० बजे के बाद
भावना अनुकूलता अनुसार होती है।
घी की बोली की दर रु. ५/- प्रति मण
आरती / मंगलदीप की बोली सायं ७-०० बजे
आरती सायं ७-१५ बजे
मंगलदीप सायं ७-१५ बजे
जिनालय मांगलिक करने का समय सायं ७-३० बजे

धर्मशाला तथा भोजनशाला

श्री कुंभारियाजी तीर्थ में सभी सुविधाओं के साथ नवनिर्मित ..

दो विशाल धर्मशाला हैं जिनमें छोटे-छोटे २७ कमरे तथा २ हॉल हैं, यात्री भाई-बहिनों के लिए कार्यरत हैं।

समस्त सुविधाओं के साथ भोजनशाला भी सुचारुरूप से चलती है।

योजनाएँ

नियमित तिथियों की जानकारी
श्री सर्वसाधारण स्थायी तिथि रु. ५,०००/-
श्री जिनालय साधारण स्थायी तिथि रु. ३,०००/-
श्री जिनालय आंगी स्थायी तिथि रु. ५,०००/-
श्री अखंडदीप स्थायी तिथि रु. १,१००/-
श्री उबाले हुए पानी हेतु स्थायी तिथि रु. १,१११/-/-

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फोटो गैलरी

संपर्क

सेठ आनंदजी कल्याणजी कुंभारियाजी तीर्थ,
पीओ अंबाजी, पिन- 385110।
वाया-पालनपुर

ऑफिस फोन नंबर: 02749 262178
मोबाइल: 9428000613/7069004613