रंगीले राजस्थान की धरती का मनोहर तीर्थधाम राणकपुर

उत्कृष्ट कला और सौंदर्य से विभूषित राणकपुर तीर्थ राजस्थान में स्थित है। राजस्थान भारत के उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित राज्य है। राजस्थान का अर्थ है ‘राजाओं का या राजपूतों का प्रदेश’। राजस्थान का इतिहास शौर्य, शील, क्षमा, बलिदानी वीरों और वीरांगनाओं का उज्ज्वल इतिहास है।  अपनी उत्तम सांस्कृतिक परम्परा के कारण समग्र भारत में इस राज्य की पहचान बिलकुल निराली है। उसके पास प्राचीन अनुमध्यकालीन युग की समृद्ध कलापूर्ण विरासत है।

राजस्थान में स्थित श्रीराणकपुर तीर्थ जोधपुर से १६० कि.मी. , उदयपुर से ८९ कि.मी., फालना से ३२ कि.मी. और सादडी से ८ कि.मी. दूर स्थित है। यह तीर्थ अरावली की पश्चिम और की खाटी में स्थित है और घने जंगल से घिरा हुआ है। राजस्थान के पाली जिले में स्थित यह राणकपुर तीर्थ अपनी अनुपम कला समृद्धि के कारण विश्वभर में प्रसिद्ध है।

त्रिभुवन दीपक देव महालय के निर्माता धरणाशाह राजस्थान के नादिया गाँव के मूल निवासी और मेवाड के मालघाट के निवासी थे। कुमारपाल और माता कामलदे के पुत्र धरणाशाह को परिवार से धार्मिक संस्कार और दयालुता के गुण प्राप्त हुए थे। पोरवाल ज्ञाति के धरणाशाह की पत्नी का नाम धारलदे था। उनके जाज्ञा और जावड नामक दो पुत्र थे। धरणाशाह के बडे भाई का नाम रत्नाशाह और उनकी पत्नी का नाम रत्नादे था। उनके लाखा, माना, सोना और सालिग इसप्रकार चार पुत्र थे। एक दंतकथा के अनुसार एकबार मांडवगढ़ के मुस्लिम बादशाह का पुत्र गजनीखां अपने पिता से नाराज होकर राज्य छोड़कर राजपूताना में आया। दोनों भाईयों ने उसे समझकार पिता के पास भेजा, इससे शहनशाह प्रसन्न हुआ और दोनों भाईयों को बुलाकर अपने दरबार में स्थान दिया। परन्तु कुछ समय बाद कान के कच्चे बादशाह ने उन्हें बंदी बना लिया। उस समय विभिन्न प्रकार के चौरासी सिक्कों का दंड भरने के बाद मुक्त होकर अपने देश वापिस लोटे। अब उन दोनों बंधुओं को अपने देश-नाँदिया में रहना उचित नहीं लगा। इसलिए वे राणकपुर के दक्षिण में स्थित पालगढ़ में जाकर रहने लगे।

धरणाशाह और रत्नाशाह अत्यंत बुद्धिमान और कर्तव्यनिष्ठ थे।  उनकी कीर्ति सुनकर मेवाड़ के राणा ने (संभवत: राणा मोकल और उनके बाद राणा कुंभा ने भी) उन्हें अपनी राजसभा में सन्मान दिया था। इतना ही नहीं अपितु उनकी बुद्धिमानी देखकर उन्हें मंत्री पद भी दिया था।

आचार्य समोसुंदरसूरिजी महाराज की प्रेरणा के परिणामस्वरूप उन्होंने यहाँ जिनमंदिर बनवाने का संकल्प लिया, और उस हेतु राणा कुंभा से भूमि मांगी।

राणा कुंभा ने अरावली पर्वतमाला की खाई में मघाई नदी के किनारे स्थित वन की भूमि दी। राणा ने इसके साथ यह सलाह भी दी कि जिनमंदिर के साथ एक गाँव भी वहाँ बसाओ। धरणाशाह ने इस सलाह को आनंदपूर्वक स्वीकार किया। पंद्रहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में मालघाट-मादडी निवासी धरणाशाह ने इस भूमि पर जिनालय का निर्माण करवाया। नगर का नाम राणा के नाम पर राणकपुर रखा गया। उसके बाद जनसमुदाय में इस नगर के नाम का भिन्न अर्थ प्रचलित हुआ। कोई राणीगपुर, कोई राणीकपुर तो कोई राणकपुर कहने लगा। इसमें राणकपुर नाम विशेष प्रचलित हुआ और आज यही नाम प्रसिद्ध है। आज राणकपुर में तीन जिनमंदिर हैं। मंत्रीश्वर धरणाशाह ने जिनमंदिर के निर्माण हेतु अत्यंत प्राकृतिक वातावरण पसंद किया। एक ओर जिनमंदिर के लिए समतल सशक्त भूमि और दूसरी ओर विंध्याचल (अरावली) का पर्वत और बीच में माद्री पर्वत की तलहटी ऐसी भूमि पसंद की। तीनों ओर ऊँची पहाड़ियों से जिनमंदिर की शोभा और मनोहरता में वृद्धि हुई।

राणकपुर तीर्थ के बाहरी क्षेत्र में सूर्यनारायण का महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाया गया कथित मंदिर है। उसके समीप ‘भांगरिया खेलोजी’ नाम से पहचाने जाने वाला भैरव का स्थान है। इस तीर्थ की दक्षिण दक्षिण दिशा में एक पहाड़ पर एक छोटा सा महल दिखाई देता है। दक्षिण दिशा की ओर के भयंकर जंगल से होकर मेवाड़ की ओर जाने का मार्ग है। उत्तर दिशा की पहाड़ी में राणाकुम्भा द्वारा बसाया गया कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला दिखाई देता है।

राणकपुर के तीन जिनमंदिरों में प्रथम तीर्थंकर श्री आदीश्वर भगवान का चौमुखी मंदिर ‘धरणविहार’ के नाम से जाना जाता है। धरणाशाह ने श्री शत्रुंजय तीर्थ का संघ निकालकर यात्रा की थी। शत्रुंजय पर्वत पर ऋषभदेव भगवान के समक्ष बत्तीस वर्ष की युवावस्था में अलग-अलग बत्तीस नगरों के एकत्रित हुए श्री संघ की ओर से संघ तिलक करवाकर, इन्द्रमाला पहनकर आजीवन चौथे व्रत (ब्रह्मचर्य व्रत) की प्रतिज्ञा ली थी। आचार्य सोमसुंदरसूरि के शिष्य प्रतिष्ठासोम अपने ‘सोमसौभाग्य काव्य’ में कहते हैं कि आचार्य सोमसुंदरसूरि के व्याख्यान में जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित करने तथा जिनालय बनवाने से होने वाले पुण्यफल का वर्णन सुनकर धरणाशाह ने उन्नत औ मनोहर जिनमंदिर बनवाने की अभिलाषा रखी थी।

एक ऐसी किंवदंति है कि, चक्रेश्वरी माता ने एक दिन स्वप्न में धरणाशाह को बारहवें देवलोक के ‘नलिनीगुल्म विमान’ का दर्शन करवाया। उस दिन से धरणाशाह के हृदय में एक ही भावना जाग्रत हो गयी नलिनीगुल्म विमान जैसे जिनालय का इस पृथ्वी पर निर्माण हो। मंत्री धरणाशाह ने उस समय के प्रखर आचार्य श्री सोमसुंदरसूरिजी महाराज के पास जाकर अपने स्वप्न के बारे में बताया और जिनालय निर्माण हेतु आशीर्वाद प्राप्त किया।

नलिनीगुल्म देव विमान जैसा मंदिर संगमरमर पत्थर पर उत्कीर्ण कर सके वैसे कुशल शिल्पकार की आवश्यकता थी। अंत में मुंडारा गाँव के निवासी देपा नामक शिल्पी को बुलाया गया। धरणासेठ द्वारा प्रतिष्ठा करवाने के शिलालेख में उनके शिल्पकार का नाम ‘सूत्रधार देपाक’ मिलता है।  इस देपा के लिए शिल्पकला एक आराधना थी। शिल्पकृति उपासना थी। उसका नियम था कि सदैव उत्कृष्ट शिल्पकृति बनाना। तथा जिनालय बनवाने वाला यदि धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो तभी कार्य करना। मंत्री धरणाशाह की पवित्र जीवनशैली और दृढ़ धर्मपरायणता से देपा शिल्पी प्रसन्न हुआ। उसने कार्य करना स्वीकार किया। वह बार-बार धरणाशाह के पास आकर बैठता और मंत्री जिनालय का जैसा वर्णन करते उसे लिख लेता। उसके बाद देपा शिल्पी नक्शे तैयार करने लगा। मंत्री धरणाशाह को एक नक्शा प्रत्यक्ष नलिनीगुल्म विमान जैसा लगा। धरणाशाह का अद्भुत धर्ममनोरथ सभी जानते थे। परन्तु ऐसे विशाल निर्माण के लिए उनकी आर्थिक स्थिति के विषय में लोगों को शंका थी। कुछ शिल्पियों के कहने से देपा ने इसका पता लगाने का विचार किया और इसलिए जिनमंदिर की नींव मे लिए सात प्रकार की धातु, कस्तुरी और बहुमूल्य वस्तुएँ मंगवाई। धरणाशाह ने तत्काल सभी वस्तुएँ उपस्थित कर दी। इन शिल्पियों को कबन्ध (कमरबंध) पहनाकर धरणाशाह ने प्रसन्न किया। सभी शिल्पी, कारीगर और मजदूरों की आवश्यकता पूर्ति हेतु सभी सुविधाएँ प्रदान की और देखते ही देखते ‘जंगल में मंगल’ की प्रतीति करवाने वाले उन सैंकड़ों शिल्पियों के टंकन की ध्वनि से वह प्रदेश गुंजने लगा और संगमरमर के पत्थर पर मनोहर आकृतियाँ-कृति का सर्जन होने लगा।

‘शिल्पियों ने उत्कीर्ण पत्थरों से पीठस्थापना की, उसपर तीन भूमि खण्ड युक्त संरचना कर मंडप बनाये और (अंतरंग) पूतलियाँ और नक्काशियों से सुशोभित कर, चारों ओर उज्ज्वल भद्र प्रसाद तैयार किये व ‘त्रैलोक्यदीपक’ नाम रखा।’

१५ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में संरचित वास्तुशास्त्र ग्रंथ के ‘वृक्षार्णव’ विभाग में एक बड़ी पीठबंध वालेनाम धारण करने वाले तथा चारों ओर से मेघनाद मंडपवाले जैन चतुर्मुखप्रासाद के एक प्रकार को त्रैलोक्यदीपक कहा है।

अढ़ाई हजार से अधिक कारीगर इस मंदिर को बनाने के लिए काम कर रहे थे और पाँच, दस या पच्चीस वर्ष नहीं, अपितु उसके निर्माण में पचास वर्ष व्यतीत हो गये। कुछ लोगों के कथनानुसार ६२ वर्ष से अधिक समय लगा।

विक्रमसंवत् १४९६ में श्री राणकपुर तीर्थ के मंदिर की प्रतिष्ठा करने का निर्णय लिया गया था। अभी मंदिर का काम चल ही रहा था परन्तु मंत्री धरणाशाह और आचार्य सोमसुंदरसूरि वयोवृद्ध हो गये थे और उनके जीवनकाल में उनका स्वप्न साकार हो जाये ये सभी लोग चाहते थे।

युगप्रधान तपागच्छाचार्य श्री सोमसुंदरसूरि के हाथों मंदिर की प्रतिष्ठा करवाने का निर्णय लिया गया। संघवी धरणासेठ की प्रार्थना पर उन्होंने इसे स्वीकार किया। आचार्य श्री सोमसुंदरसूरि के साथ ५०० साधुओं का परिवार था, जिसमें चार सूरिवर और नौ उपाध्याय भी थे। उस समय श्रेष्ठि धरणाशाह ने गरीबों को विपुल दान दिया। प्रतिष्ठा महोत्सव निमित्त जनोपयोगी कार्य भी किये। इस सूखे प्रदेश में पानी की कमी को दूर करने के लिए कूएँ, वापी और तालाब खुदवाये और सहृदय साधर्मिक वात्सल्य किया।

राणकपुर मंदिर के संवत् १४९६ के एक शिलालेख से पता चलता है कि धरणाशाह ने इस मंदिर के अलावा अजारी, पिण्डवाडा, सालेर आदि सात गाँवों में भी नवीन सात जिनालय बनवाये थे और अनेक जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। पिण्डवाड़ा के मंदिर के मूलनायक पर संवत् १४६५ का श्रेष्ठी धरणाशाह के बारे में लिखा लेख आज भी धर्मपरायण श्रेष्ठी की उस भावना के बारे में बताता है कि श्रेष्ठी धरणाशाह ने कैसे सर्वस्व अर्पण करके भी उसे साकार की। धरणाशाह को उनके अंतिम समय में जिनमंदिरों के अधूरे कार्य को पूर्ण करवाने का वचन उनके बड़े भाई रत्नाशाह ने दिया। दीर्घायु रत्नाशाह ने धरणाशाह के अवसान के बाद आठ-दस वर्ष तक कलात्मक मंडपों का कमनीय शिल्पकार्य करवाया और इस तीर्थ की शोभा में अधिक वृद्धि हुई।

मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार के ऊपर के भाग में एक हाथी के पीछे दूसरे हाथी की आकृति है। और उसके ऊपर धरणाशाह व उनकी पत्नी तथा रत्नाशाह व उनकी पत्नी की इसप्रकार चारों की शिल्पकृति देखने को मिलती है। इन शिल्पकृतियों की मुद्रा ऐसी है कि वे भगवान के सन्मुख बैठकर चैत्यवंदन कर रहे हों, और अपने छोटेभाई धरणाशाह की भावना पूर्ण करने वाले बड़े भाई रत्नाशाह की एक अलग मूर्ति मंदिर के दक्षिण दिशा के प्रवेशद्वार के पास मिलती है।

राणकपुर अर्थात् स्तम्भों का नगर। श्रेष्ठी धरणाशाह ने चतुर्मुख जिनप्रासाद बनवाने का विचार किया और इस चतुर्मुख जिनप्रासाद की रचना हेतु ऊँचाई पर देवकुलिका बनानी थी, तथा इस जिनमंदिर का शिखर इतना ऊँचा था कि उसके पत्थरों का पत्थरों का भार उठाने के लिए अधिक स्तम्भों की आवश्यकता थी। इसलिए इस जिनमंदिर में १,४४४ स्तम्भों की अनुपम रचना की गई। तथा, यह स्तम्भ रचना ऐसी है कि स्तम्भ भरचक दिखाई नहीं देते और मंदिर में प्रवेश करनेवाले श्रद्धालुओं को यह स्तंभावलि खटकती नहीं है वरन् जिनमंदिर की सुन्दरता भव्यता में हृदयांगम वृद्धि होती है।

ये स्तम्भ सीधे-आड़े रूप में ऐसी भिन्न भिन्न हारमाला में योजना पूर्वक बनाये गयें हैं कि जिसके कारण पूरे मंदिर में किसी भी स्थान पर खड़े व्यक्ति को किसी भी दिशा से बिना अवरोध के तीर्थंकर भगवान के दर्शन होते हैं। इसप्रकार, ये स्तम्भ एक ओर स्थापत्य-सौंदर्य का अनुभव करवाते हैं, तो दूसरी ओर प्रभुदर्शन में कहीं भी अवरोध उत्पन्न नहीं करते।

अत्यंत सूक्ष्म और कलापूर्ण तथा एक ही पत्थर से बने हुए मनोहर तोरण इस जिनमंदिर की अनोखी विशेषता है, वर्तमान में मंदिर के सभामंडप में ऐसी तीन तोरण हैं, परन्तु मंदिर की रचना के समय १०८ या १२८ तोरण थे, उस समय स्तम्भों की कलासमृद्धि कितनी उत्तम होगी!

मुख्य मंदिर के गर्भगृह में चारों दिशा में ऋषभदेव भगवान की पांच फुट ऊँची, सफेद संगमरमर परिकर के साथ चार सुंदर मनोहर प्रतिमाएँ दिखाई देती हैं। उसकी तीन दिशा में हाथी पर मरुदेवी माता की रचना की गई है।

मंदिर की विशालता और ऊँचाई को ध्यान में रखकर उसके सभामंडप की रचना अनोखे प्रकार से की गई है। सभा मंडप अपने नाम को सार्थक करें वैसे अद्वितीय है।

यहाँ मुख्य रंगमंडप में एक घुम्मट सोलह स्तम्भों पर बनाया गया है, जो मुख्य घुम्मट है। उसमें नवग्रह तथा सोलह विद्यादेवियों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गई हैं तथा अतीत, वर्तमान और अनागत इसप्रकार तीन चौवीसी के कुल बहत्तर तीर्थंकरों की छोटी प्रतिमाएँ वृत्ताकार में उत्कीर्ण की गई हैं। इस मेघमंडप की ऊँचाई ४० फूट से अधिक है, और उसके एक स्तम्भ में धरणाशाह की छोटी सी दस इंच की शिल्पाकृति उत्कीर्ण की गई है। परन्तु छोटी छोटी जगह से भी धरणाशाह की दृष्टि सीधे भगवान पर पड़े इसप्रकार से बनाई गई है। जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर आदीश्वर भगवान की स्थापना होती है वहाँ रायणवृक्ष अवश्य होता है। इस मंदिर के आंतरिक भाग में  गर्भद्वार और परिधि के बीच एक स्थान पर रायणचरणों की रचना है और वहाँ रायणवृक्ष लगाया गया है। गर्भगृह के बाहर शिलापट में गिरनार, शत्रुंजय आदि तीर्थों की नक्काशी देखने को मिलती है, तथा इस जिनमंदिर क नंदिश्वर द्वीप के समान बनाने के लिए मुख्य गर्भगृह के साथ चारों दिशा में विशाल उज्ज्वल महाप्रासाद (भद्रप्रासाद) बनाया गया है।

मंदिर की शिल्पाकृति अनुपम है। सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान की शिल्पाकृति लगभग साडे चार फूट के व्यास की अखण्ड वृत्ताकार शिला में उत्कीर्ण है। इस आकृति के बीच में पार्श्वनाथ भगवान कायोत्सर्ग अवस्था में खड़े हैं। उनके आसपास धरणेन्द्र व पद्मावतीदेवी है। उसमें सहस्रफणा (१००० फेनवाले) नाग का छत्र पार्श्वनाथ भगवान के मस्तक को ढ़कते हुए बनाया गया है। यह शिल्पाकृति मौलिक, समप्रमाण, कौतुकमय, भक्तिभाव से पूर्ण और कलाकृति का एक अद्वितीय उत्तम नमूना है।

मंदिर के ऊपरी भाग में घुम्मट की छत में पुष्पलता की आकृति को देखो, उसमें लता की छोटी-बड़ी वृत्ताकार अलग अलग हार माला देखने को मिलेगी। परन्तु ध्यान से देखें तो एक ही लता की पूर्ण आकृति है।

इस मंदिर की दक्षिण दिशा के ऊपर के भाग में स्थित शिलाओं में नंदीश्वरद्वीप की यंत्राकार उत्कीर्ण संरचना देखने को मिलती है। मंदिर में स्थित कीचक की आकृति तुरन्त दिखाई देती है, उसमें एक मुख और अलग अलग शरीर हैं। किसी स्थान पर ऐसे पंचशरीरी वीर की आकृति भी देखने को मिलती है।

इस जिनमंदिर में नागदमन की अत्यंत मनमोहक आकृति भी मिलती है।

मंदिर में गर्भगृह के बायीं व दायीं ओर दो विशाल घंट हैं। अढाई सौ-अढ़ाई सौ किलोग्राम के वजन वाले इन घंट को बजाने पर निकलने वाली ॐकार की ध्वनि तीन किलोमीटर तक सुनाई देती है। इसमें एक घण्ट नर-घण्ट है, तो दूसरा मादा-घण्ट है। दोनों घण्ट क्रमश: बजाने पर उनकी ध्वनि भेद से उनके जातिभेद को पहचाना जा सकता है, तथा, जब आरती के समय दोनों घण्ट को वेग से बजाया जाता है तब उनकी ध्वनि बिलकुल भिन्न वातावरण का सर्जन करती है। इन दोनों घण्टों पर मंत्राक्षरों के अलावा यंत्राकृतियाँ भी उत्कीर्ण की गई हैं।

इस जिनमंदिर के एक स्तम्भ पर मुगल बादशाह अकबर की मूर्ति उत्कीर्ण है। मुगल बादशाह अकबर में धार्मिक उदारता थी और जैनाचार्य हीरविजयसूरि के उपदेश का उसके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा था। आचार्यश्री को वह जगत्गुरु कहता था। आचार्यश्री हीरविजययसूरि के उपदेश से विक्रमसंवत् १६५१ में अहमदाबाद का संघ राणकपुर की यात्रा करने आया और मंदिक का जीर्णोद्धार करवाया। उसकी स्मृतिरूप एक स्तम्भ में अकबर बादशाह की आकृति के साथ स्पष्ट शिलालेख मिलता है। गर्भगृह के पास सेठ धरणाशाह की छोटी प्रतिमा मिलती है।

यह मंदिर नलिनीगुल्म विमान के रूप में भी जाना जाता है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान की चार प्रतिमाएँ (चौमुखी) के रूप में बिराजमान हैं और मंदिर के चार द्वार हैं। अर्थात् वह चतुर्मुख जिनप्रासाद के रूप में जाना जाता है। आचार्य विशालसुंदरसूरि ने अपने स्तवन में इसे ‘चौमुख धरणविहार’ कहा है। मूलनायक ऋषभदेव होने के कारण आचार्य ज्ञानविमलसूरि उसे “ऋषभविहार” कहते हैं और कहीं ‘त्रिभुवन तिलक’ भी नाम देते हैं। तथा, यह नंदीश्वरद्वीप के अवतार समान तीनों लोक में देदीप्यमान देव मंदिर ‘त्रैलोक्यदीपक’ के रूप में भी जाना जाता है। इस अनुपम जिनमंदिर की प्रतिष्ठा हुई उस समय के शिलालेख में ‘श्री चतुर्मुखयुगादीश्वर विहार’ और ‘त्रैलोक्यदीपक’ वैसे नाम देखने को मिलते हैं।

१८ वीं शताब्दी में राणकपुर तीर्थ की यात्रा पर आये आचार्यश्री ज्ञानविमलसूरि ने राणकपुर तीर्थस्तवन में कहा है, ‘नलिनीगुल्म विमान की संरचना वाला यह मंदिर बहुत ऊँचा है। पाँच मेरु, चारों ओर एक बड़ा किला, ब्रह्माण्ड जैसी संरचना, ७४ देवकुलिकाएँ, चारों ओर चार पोल, १४२४ स्तम्भ, एक-एक दिशा में बत्तीस-बत्तीस तोरण, चारों दिशा में चार विशाल रंगमंडप, सहस्रकूट, अष्टापद, नौ तलघर और अनेक जिनबिंब, रायण के नीचे चरणपादुका, अदबदमूर्ति वगैरह से युक्त यह मंदिर त्रिस्तरीय है। यहाँ ३४००० जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की गई है।’ उसी शताब्दी के पू. श्री समयसुंदरगणि और श्री ज्ञानविमलसूरि के इस वर्णन से मंदिर की विशालता, उन्नति व भव्यता का परिचय मिलता है।

इस जिनमंदिर के निर्माण में आज से साडे पाँच सौ वर्ष पूर्व ९९ लाख रुपये का खर्च हुआ था। एक हस्तप्रति में उल्लेख मिलता है कि : “धन्नाशाह पोरवाड निन्नाणु लाख द्रव्य लगायो”

इस मंदिर में जैसे ८४ देवकुलिकाएँ हैं वैसे ही ८४ तलघर भी थे यह माना जाता है।

श्री नेमिनाथ भगवान का जिनालय

धरणाविहार की पश्चिम दिशा में नेमिनाथ भगवान का शिखरबद्ध जिनालय है। उसमें परिकर सहित नेमिनाथ भगवान की दो फूट ऊँची श्यामवर्ण प्रतिमा है। इसके अलावा छोटी-बडी पैंत्तीस जितनी प्रतिमाएँ यहाँ मिलती हैं। इस मंदिर में परिकर की रचना के बाहर देवांगनाओं की आकृतियाँ सूक्ष्मता से उत्कीर्ण की गई हैं। सोलंकी युग में और उसके पश्चात् पंद्रहवीं शताब्दी में अन्यत्र देखने को न मिले ऐसे आकारक्षम एवं अधिक गहराई वाले गवाक्ष इस मंदिर में हैं। इस मंदिर के गवाक्ष इसकी विशेषता है। इसका द्वार पूर्वाभिमुख है।

श्री पार्श्वनाथ भगवान का जिनालय

धरणाविहार के पश्चिम द्वार के पास में भगवान पार्श्वनाथ का शिखरबद्ध जिनालय है। कवि मेह अपने स्तोत्र में इस जिनालय के निर्माता का नाम कहने के स्थान पर खरतरवसही कहते हैं अत: इसका निर्माता कोई खरतरगच्छ परम्परा का श्रावक हो सकता है। उसके निर्माता के रूप में सोमल पोरवाड का नाम मिलता है। ये सोमल पोरवाड कदाचित् धरणाशाह के मुनिम तो नहीं थे? मंदिर के स्थापत्य से पता चलता है कि, धरणाविहार निर्माण के आसपास के समय में यह मंदिर निर्मित होना चाहिये।

सुंदर रीति से अलंकृत और समप्रमाण इस मंदिर के गवाक्ष और झरोखे अत्यंत आकर्षक हैं। यद्यपि यह मंदिर बाहर से जितना कलात्मक और आभूषित लगता है अंदर उतना ही सादा है। इसमें पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा है। इसके अलावा सभामंडप के दोनों ओर जिन प्रतिमाएँ बिराजमान हैं।

मंत्रीश्वर धरणाशाह कृत राणकपुर मंदिर की प्रतिष्ठा के पश्चात् उनकी प्रशस्ति में लिखे गए स्तवनों में ३४००० जिन प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है।

विक्रमसंवत् १६७९ में धरणाशाह के वंशजों ने पुन: जीर्ण हुए इस जिनमंदिर का जीर्णोद्धार करवाकर तत्कालीन तपागच्छीय आचार्यश्री विजयदेवसूरिजी के वरदहस्तों से पुन: प्रतिष्ठा करवाई थी।

कालचक्र का घुमाव अद्भुत होता है। कभी जो वैभवमय होता है तो कभी जीर्ण अवस्था में निर्जन बन जाता है। ऐसा कहा जाता है कि मुख्य मंदिर के निर्माण के पश्चात् दो सौ वर्ष पश्चात् राणकपुर खंडित हुआ। मुगल बादशाह औरंगजेब के समय में उसकी सेना इस प्रदेश से निकली थी और उसने धरणाविहार को भी बड़ी हानि पहुँचाई। उसके बाद इस प्रदेश में अकाल पड़ने पर आसपास के लोगों ने समीप के नगरों में स्थानान्तर कर लिया। इस तीर्थ के आसपाक सघन झाड़ियाँ उग गई, रास्ते विकट बन गये। वन्य पशुओं और विषैले सर्पों के कारण इस प्रदेश में कदाचित् ही कोई आता था।

विरान बना यह मंदिर दिन में चमगादड़ों के रहने तथा रात्रि में चोर-डाकूओं के छिपने का स्थान बन गया।  लोग तीर्थ यात्रा पर आने बंद हुए और धीरे-धीरे पृथ्वी पर स्वर्ग समान यह जिनमंदिर बिलकुल निर्जन बन गया। सुरक्षित रहने हेतु लोग यहाँ से दूर चले गये और ऐसे समय पर इन देव स्थानों की सार-संभाल लेने का साहस करना भी कठिन था। भव्य मंदिर और पवित्र मंत्रोच्चार से गुंजने वाला यह स्थान, चमगादड़ों और कबूतरों का निवास स्थान बन गया। किसी समय धूप और पुष्पों की सुगंध से आसपास का वातावरण सुगंधित रहता था, वहाँ पक्षियों की बीट की दुर्गंध फेलने लगी। इस महान जिनमंदिर के द्वार, स्तम्भ और प्रस्तरपट इतने अधिक मलिन हो गये थे कि वे संगमरमर के बने हैं यह पहचान भी धूमिल हो गई। मंदिर में स्थान-स्थान पर खड्डे पड़ गये, घुम्मट और छत से पानी गिरने लगा, नीचे बिच्छाई गई फर्श ऊँची-नीची हो गई, स्तम्भ और प्रस्तरपटों में दरार पड़ने से यह नलिनीगुल्म विमान क्षतिग्रस्त होने लगा।

एक समय जिसकी भव्यता, सौन्दर्य और कलाकृति हजारों यात्रियों और प्रवासियों को मंत्रमुग्ध करती थी, वह मंदिर बिलकुल विरान हो गया।

विक्रम संवत् १९६३ से १९५९, ईस्वीसन् १८९७ से १९०४ के बीच सादडी के समग्र जैन संघ ने राणकपुर तीर्थ का संचालन सेठ आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी को सौंपा। उस समय पेढ़ी के प्रधानपद पर श्री मयाभाई प्रेमाभाई नगरसेठ रूप में कार्यरत थे। राणकपुर का संचालन जब पेढ़ी के अधीन आया तब मंदिरों के आसपास का स्थान खण्डहर अवस्था में था। विषैले जंतु और पक्षियों के घोषले भी मंदिरों में स्थान-स्थान पर दिखाई देते थे। ऐसे समय में एकबार अमहादाबद के हेमाभाई नगरसेठ ने संघ निकालकर सादडी गाँव में आये और वहाँ से राणकपुर जाना चाहते थे। राणकपुर की ऐसी विकट परिस्थति देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने तत्काल इस पावन स्थल पर डाकू-लूटेरों को रोकने के लिए अरब रक्षकों की भर्ती की। इस प्रदेश को स्वच्छ करवाया और जिनालय के आसपास सुरक्षा हेतु दीवार बनवाई। यात्रीगण बिना अवरोध के आ सके इसलिए सादड़ी से राणकपुर के मार्ग में स्थान-स्थान पर सैनिक रखे। इधर दिनांक २५-१०-१९२८ से तेजस्वी और दीर्घ दृष्टा सेठ श्री कस्तुरभाई लालभाई ने पेढ़ी की कमान संभाली और कला, संस्कृति, शिल्प, स्थापत्य के कोषरूप तीर्थों के जीर्णोद्धार के पुण्ययज्ञ का प्रारम्भ किया, जिसमें राणकपुर के त्रैलोक्य दीपक धरणाविहार के जिनालय को प्रधानता दी। इन मंदिरों के जीर्णोद्धार करवाने का प्रस्ताव दि. १६-०१-३६ की बैठक में निश्चित हुआ। इस के लिए स्थापत्य के विद्वान और कुशल शिल्पी ग्रेगसन बेटली तथा पेढ़ी के शिल्पी (१) श्री भाईशंकर (२) श्री प्रभाशंकर (३) श्री जगन्नाथभाई और (४) श्री दलछाराम वगैरह के साथ तीर्थस्थल पर प्रत्यक्ष जाकर सम्पूर्ण परिस्थिति का आकलन किया।

उसके बाद शासनसम्राट श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश और आज्ञा लेकर जीर्णद्धार के धर्मकार्य का प्रारम्भ किया। ध्रांगध्रा निवासी श्री दलछाराम खुशालदास ने जीर्णोद्धार को इस भागीरथ कार्य का उत्तरदायित्व दिया गया। सोनाणा की खानों के पत्थरों पर लगभग दो सौ कारीगरों और सैंकड़ों मजदूर जीर्णोद्धार के काम में जुड़ गए। मुख्य जिनालय के चौमुखजी के भगवान का संगमरमर का परिकर बिलकुल नष्ट हो गया था उसका पुन: नवनिर्माण करवाया गया। आज मंदिर के बाहर दक्षिण में स्थित प्राचीन परिकर प्राचीन स्थापत्यकला के इतिहास को बताता है।

झूमर, मेघनाद मंडप वगैरह पुन: चेतनमय हुए। नयी धर्मशाला, भोजनशाला और अन्य सुविधाएँ भी खड़ी की गई। इसप्रकार आरंभ हुआ जीर्णोद्धार का कार्य ग्यारह वर्ष तक चला और उसके लिए उस समय ग्यारह लाख रुपये खर्च हुए। परिणामत: जंगल में मंगल हो इसप्रकार बिलकुल निर्जन और विरान बना धरणीविहार पुन: उसके शिल्प, सौंदर्य और धर्मभावना का धर्मध्वज लहराने लगा। विक्रमसंवत् २००९ (ईस्वीसन् १९५३) में परमपूज्य विजय उदयसूरिजी महाराज साहब तथा परमपूज्य विजयनंदनसूरिजी महाराज साहब की निश्रा में ऐतिहासिक स्मृतिरूप प्रतिष्ठा का उत्सव मनाया गया। इस अवसर पर एक लाख से अधिक श्रद्धालु लोग आए थे। इसके बाद तीर्थ में नयी धर्मशालाएँ तथा भोजनशाला आदि की अनेक सुविधाएँ खड़ी की गई।

मंदिर से कुछ दूरी पर तालाब स्थित है। जिसमें नहरों द्वारा शीतकालीन औ ग्रीष्मकालीन फसल होती है। संवत् १९५६ के अकाल के समय यहाँ बांध बनाया गया था।

राणकपुर तीर्थ में प्रतिवर्ष दो मेले लगते हैं। उसमें फाल्गुन कृष्णा दसवीँ अर्थात् राजस्थान की चैत्र वदी दसम के मेले में हजारों यात्री एकत्रित होते हैं। चैत्र कृष्णा दसवीं के दिन मूलनायक ऋषभदेव भगवान के जिनालय के शिखर पर धरणाशाह तथा रत्नाशाह के वंशजों में से कोई एक महानुभाव ध्वजा चढ़ाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि धरणाशाह और रत्नाशाह का परिवार पालगढञ से सादडी आकर रहने लगा और उसके बाद वे घाणेराव रहने लगे। वर्तमान में इस परिवार के वंशज घाणेराव तथा मुंबई में रहते हैं और धरणाविहार के शिखर पर ध्वजा चढ़ाने का उनका अधिकार आजतक चल रहा है। शेष ध्वजाएँ सेठ आणंदजी कल्याणजी की पेढ़ी की ओर से चढ़ाई जाती हैं।

तथा आश्चर्यजनक तथा विरल योगानुयोग यह है कि जैसे धरणाशाह और रत्नाशाह के वंशज आज भी चौदहवीं पीढ़ी में भी नवीन ध्वजा चढ़ाते हैं, इसीप्रकार पंद्रहवीं शताब्दी में सेवा-पूजा के लिए चित्तोड़ से पुजारी लाये गये थे। आज उनकी पीढियाँ पुजारी के रूप में सेवा पूजा करती हैं। उसी प्रकार शिप्पी देपा के वंशज आज भी जिनालय के जीर्णोद्धार का कार्य करते हैं। इन चौदह पेढ़ियों के रक्त में बहने वाली परम्परा में दो सौ वर्षों का अंतराल होने पर भी आजतक अनवरत जारी है।

इस तीर्थ को देखने के लिए आज भारत के अलावा अमेरिका, जापान और अन्य देशों से भी यात्रीगण, श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। उसकी सूक्ष्म नक्काशी और सूक्ष्म स्थापत्य पूरे विश्व को मोहित करता है।

राणकपुर के लिए सुप्रसिद्ध कवि ऋषभदास ने लिखा है कि,

‘गढ आबू नवि फरसियो, न सुण्यो हीरनो रास

राणकपुर नर नवि गयो, त्रिण्ये गर्भवास!’

और एक आनंद दायक लोकोक्ति …

कटकुं बटकुं खाजे पण राणकपुर जाजे.

आज भी वातावरण में गूंज रही है।

विशेष वर्णन

उपाश्रय –  साधु-साध्वीजी महाराज साहब के लिए ठहरने-रहने की पूरी सुविधा है।

बसों के द्वारा संघ आने के अवसर पर तथा छ’रीपालित संघ आने के अवसर के समय विशिष्ट आयोजन पूजा-महापूजन-भावना-भक्ति वगैरह होती हैं। चैत्र तथा आश्विन महीने में नवपदजी की ओली आराधना भी आयोजित होती है।

वर्षगाँठ

श्री राणकपुर तीर्थ मूलनायक भगवान की वर्षगाँठ (प्रतिष्ठा दिवस)

मूलनायक दादा की वर्षगाँठ या प्रतिष्ठा दिवस फाल्गुन सुदी -५
मुख्य ध्वजा सेठ धरणाशाह के वंशजों की ओर से चढ़ाई जाती है। और शेष ध्वजाएँ पेढ़ी की ओर से चढ़ाई जाती हैं।
मूलनायक भगवा का जन्म कल्याणक फाल्गुन वदी -८
मूलनायक भगवान का निर्वाण कल्याणक पोष वदी -१३

मुख्य प्रसंग

राणकपुर तीर्थ में प्रतिवर्ष दो मेले आयोजित होते हैं। इसमें फाल्गुन वदी दसवीँ अर्थात् राजस्थान के चैत्र महीने की दसवीँ तथा आश्विन शुक्ल त्रयोदशी के दिन लगने वाले मेलों में हजारों यात्रीगण एकत्रित होते हैं।

समय पत्रक

जिनालय खोलने का समय (शीतऋतु में)
मांगलिक करने का समय (शीतऋतु में)
जिनालय खोलन का समय (ग्रीष्मऋतु में)
मांगलीक करने का समय (ग्रीष्मऋतु में)
दि. १ अप्रेलस से ३० सितम्बर तक १ अक्टूबर से ३१ मार्च तक
प्रक्षालन पूजा सुबह ०९-०० ०९-३०
बरास पूजा सुबह ०९-३० १०-००
केसर पूजा सुबह ०९-३५ १०-०५
फूल पूजा सुबह ०९-४० १०-१०
मुकुट पूजा सुबह ०९-४५ १०-१५
आरती सुबह १०-०० १०-२०
मंगलदीप सुबह १०-०५ १०-२५
आरती सायं ०७-३० ०७-००
मंगलदीप सायं ०७-३५ ०७-०५
आंगी चढ़ाने का समय ४ बजे के बाद चांदी के वर्क पर नीले वर्क की आंगी धारण करवायी जाती है।
घी बोली की दर रु. ५/- प्रति मण

धर्मशाला तथा भोजनशाला

राणकपुर तीर्थ की योजनाएँ

तीर्थ की निश्चित तिथि योजना
१.अक्षयतृतीया विशाख सुदी-३ वर्षीतप पारणा मूलधन फंड खाते में १०,०००/-
२.फाल्गुन सुदी-५ मंदिर वर्षगाँठ के दिन फंड खाते में १०,०००/-
३.कार्तिक सुदी-१५ स्वामी वात्सल्य फंड खाते में १०,०००/-
४.भोजनशाला निर्वाह खर्च खाते में २५,०००/-
५.भोजनशाला स्थायी तिथि खाते में १ समय का ५,०००/-
६.नवकारशी स्थायी तिथि खाते में १ समय का ३,०००/-
७.जिनालय की साधारण स्थायी तिथि खाते में ३,०००/-
८.सर्वसाधारण स्थायी तिथि खाते में ५,०००/-
९.उबाला हुए पानी की तिथि खाते में २,५००/-
१०.केसर-चंदन खाते में ५,०००/-
११.देवद्रव्य तिथि खाते में ५०,०००/-

राणकपुर के आसपास के तीर्थ

मूछाला महावीर 8696453616 २१ किलोमीटर
नाडोल 02934-240044 ४० किलोमीटर
नाडलाई 02934-282424 २६ किलोमीटर
वरकाणा 02934-222257 ३२ किलोमीटर
सादडी 03934-285017 ९ किलोमीटर
कुंभलगढ़ ११० किलोमीटर
घाणेराव 02934-284022-13 १८ किलोमीटर
उदयपुर 0294-242062 ९३ किलोमीटर
पाली 02932-221929-221747 ८८ किलोमीटर
फालना 02938-233109 ४० किलोमीटर
सिरोही 02972-230631 ९४ किलोमीटर

फोटो गैलरी

श्री रणकपुर तीर्थ – संपर्क

सेठ आनंदजी कल्याणजी, रणकपुर पिन 306 702
रणकपुर 8696453616
श्री प्रबंधक (मोबाइल) 7742014733
सादादी 02934-285021