शत्रुंजय गिरिराज-पालीताणा तीर्थ की जानकारी

भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के सोरठ (सौराष्ट्र-सुराष्ट्र) नाम से प्रसिद्ध विस्तार के अग्निकोण में स्थित शत्रुंजयगिरिराज का स्थान जैन तीर्थों की श्रेणी में सर्वोच्च है। प्राचीन आगमों में सिद्धक्षेत्र के रूप में स्थापित और सभी लोगों के मन में शाश्वतगिरि के रूप में सुविख्यात इस तीर्थ की यात्रा प्रत्येक जैन के लिए जीवन की अनमोल निधि है, जीवन का परम ध्येय है।

गुजरात राज्य के भावनगर जिले में स्थित पालीताणा समद्रस्तर से ६६ मीटर अर्थात् २१७ फूट की ऊँचाई पर १३ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत सुंदर नगर है। ईस्वीसन् २०२१ की जनसंख्या गणनानुसार इसकी जनसंख्या १.६५ लाख है। उसमें ५२प्रतिशत पुरुष तथा ४८ प्रतिशत महिलाएँ हैं। १५ प्रतिशत जनसंख्या ६ वर्ष से कम आयु के बालकों की है। शिक्षा के आकलन अनुसार पुरुषों में ५९ प्रतिशत और महिलाओं में ५७ प्रतिशत साक्षरता है। अहमदाबाद से २२५ और भावनगर से दक्षिण पश्चिम में ५१ किलोमीटर स्थित पालीताणा नगर के प्राण समान ऊँचा गिरिराज शत्रुंजय स्थित है। पालीताणा रेलवे स्टेशन और बस स्टेन्ड से लगभग २किलोमीटर लम्बा मार्ग है जिसके आसपास गाँव बसा है और अनेक प्रकार की वस्तुओं के बाजार विकसित हुए हैं। एक से बढ़कर एक सुविधा के साथ २०० से अधिक धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। इस दो किलोमीटर के रास्ते को पार करने पर आती है शत्रुंजय पर्वत की तलहटी!!!

तलहटी अर्थात् किसी भी पर्वत पर चढ़ने का प्रारम्भिक स्थान व जहाँ व्यवस्थित सीढियाँ बनी हों या उबड़-खाबड़ पत्थर लगाये गये हों उस भूमि को तलहटी के नाम से जानते हैं। कहीं कहीं उसे पाज अथवा पाग भी कहते हैं। पाज अर्थात् निश्चित संरचनायुक्त स्थान! जैसे कि घेटी गाँव की ओर से गिरिराज पर चढ़ने के आरंभिक मार्ग को घेटी पाग कहा जाता है। वैसे तो वह भी तलहटी ही कहलाती थी।

पूर्व समय में पहली तलहटी ‘वडनगर’ थी। उसके बाद दूसरी तलहटी वल्लभीपुर-वला के नाम से प्रख्यात थी। उसके पश्चात् समय के प्रवाह में बहते हुए तलहटी आदपुर से प्रारम्भ होने लगी, चौथी तलहटी पालीताणा बनी। और पाँचवी तलहटी वर्तमान में ‘जय तलहटी’ है, जो अभी प्रचलित है। रणसी देवराज की  धर्मशाला के पास में एक कमरा है, उसमें देरी और आदीश्वर भगवान की चरणपादुकाएँ हैं उसे भी पुरानी तलहटी कहते हैं। तथा कंकुबाई की धर्मशाला के पास पुरानी विजय तलहटी का चबूतरा बताया जाता है। उसपर श्री आदीश्वर भगवान, श्री गौतमस्वामी और श्री मणिविजयजी महाराज  की चरणपादुकाएँ हैं, उसे भी प्राचीन तलहटी कहते हैं। इसप्रकार तलहटी के संदर्भ में भिन्न-भिन्न परम्पराएँ और मान्यताएँ अस्तित्व में आयी हैं। वर्तमान में अंतिम १००-२०० वर्षों से या उससे भी अधिक समय से  पालीताणा शत्रुंजय में गिरिराज पर चढ़ने का मार्ग जय तलहटी निश्चित और पहचाना हुआ स्थान होने के कारण बहुत प्रख्यात हुआ है। समय समय पर दर्शनार्थी यात्रियों के लिए आराधना पूजा पाठ आदि सुविधाएँ तथा व्यवस्था को ध्यान में रखकर पेढ़ी की ओर से उसे सुव्यवस्थित किया गया है। वर्षों पहले जयतलहटी का चबूतरा खुला हुआ था। उसके दाहिनी ओर अहमदावाद के नगरसेठ हेमाभाई वखतचंद ने संगमरमर की देरी सहित मण्डप बनवाया था। जबकि बायीं ओर धोलेरा के सेठ वीरचंद भाईचंद ने संगमरमर की देरी सहित मण्डप बनवाया था। तलहटी का चोक अब मण्डप-तोरण, स्तम्भ और कमानों से सुशोभित होने के कारण अत्यंत भव्य लगता है। कुछ सीढ़ी ऊपर चढ़ने पर हॉल में प्रवेश करते ही सामने कुल ११ देवकुलिकाएँ स्थापित है। चबूतरे की सभी देवकुलिकाएँ प्राचीन और जीर्ण होने से वि.सं. २०३४ में आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी ने इनका जीर्णोद्धार करवाकर सुदंर, सुशोभित देवकुलिकाएँ पुन: निर्मित करवाकर पुन: प्रतिष्ठा की है।

प्रत्येक देरी में भगवान ऋषभदेव तथा अन्य तीर्थंकरों की चरण पादुकाएँ हैं। ध्वजदण्ड तथा उसके ऊपर लहराती छोटी-छोटी ध्वजाओं से शोभित (सिद्धशिला) तथा बीच की देरी के शिखर को बड़ा और कलात्मक बनवाया है। देरियों के आगे के भाग में गिरिराज की पाषाण-शिला खुली रखी गई है।  यात्रीजन उनकी भक्तिभाव से पूजा करते हैं, वंदना करते हैं, श्रृंगार करते हैं। यात्रा के प्रारम्भ में यहाँ स्तुति स्तवन तथा चैत्यवंदन करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण व शुभ माना जाता है। प्रात:काल से ही बड़ी संख्या में शत्रुंजय की पुकार को सुनकर दौड़े आये हुए पूज्य साधु-साध्वीजी महाराजों को भावमय होकर दर्शन वंदन करते हुए देखना, यात्री भाई-बहिनों को चावल से स्वस्तिक बनाते हुए देखना और शब्दरूपी तेल भर कर स्वर के दीपों को प्रज्वलित करते हुए, प्रभु के गुण गाते हुए देखना एक अनोखा एवं मधुर अवसर है। भावपूर्ण भक्ति-वंदना कर पर्वत पर बिराजमान दादा आदिनाथ के दर्शन करने हेतु जय आदिनाथ, जय दादा, जय शत्रुंजय, जय सिद्धगिरि, जैसे हर्षोल्लासमय उद्गारों के साथ यात्रीजन तलहटी से आरंभ होने वाली सीढियों पर कदम रखते हैं और इसप्रकार प्रारंभ होती है शाश्वतगिरि की यात्रा!

तलहटी के ऊपर धनवसही की टूंक के नाम से प्रसिद्ध जिनालय मुर्शिदाबाद के निवासी राय धनपतसिंहजी तथा लखपतसिंहजी बाबू नामक दो भाईयों ने उनकी माता महेताकुवर के कल्याण निमित्त बनवाया था। जिसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १९५० में महा सुदी दसमी तिथि के दिन की गई थी। इस जिनालय में दादा श्री आदीश्वरजी, श्री पुण्डरिक स्वामीजी की प्रतिमा तथा रायण चरणपादुका, जलमंदिर आदि की स्थापना की गई है। यात्रीजन उनके दर्शन करते हुए आगे बढ़ते हैं। पर्वत पर चढ़ने में असमर्थ लोग इस टूक की यात्रा कर अपना अहोभाव व्यक्त करते हैं, और यात्रा करने का संतोष मानते हैं। आस-पास की अन्य देवकुलिकाओं में जिन प्रतिमाएँ तथा जिन पादुकाओं की स्थापना की गई है। धनवसही की टूंक तथा तलहटी की देरियों के बीच में नलिया कच्छ निवासी गोविंदजी जेवत हिरजी खोना द्वारा निर्मित १५ वें तीर्थंकर धर्मनाथ भगवान का जिनालय भी स्थित है।  ऊपर चढ़ने पर दायीं ओर पूज्य पंन्यास कमलविमलजी के उपदेश से निर्मित सरस्वती गुफा के नाम से विख्यात साधना भूमि भी यहाँ है, जहाँ सरस्वती माँ की मनोहारी प्रतिमा है। यहाँ अनेक साधक श्रुतदेवी की उपासना करते हैं। उसके समीप निर्मित १०८ समवसरण जैन मंदिर की विशालकाय रचना सभी के हृदय में भक्तिभाव जगाती है। यहाँ १०८ तीर्थों के चित्रपट, १०८ पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ तथा अन्य जैन कथा प्रसंगों के १०८ चित्रपट आलेखित हैं। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ के ४ अंगों के २७-२७ प्रसंगों के आलेख युक्त १०८ चित्रपट बने हुए हैं। इस जिनालय का निर्माण वि.सं. २०२४ में किया गया है।

लोक जय आदिनाथ, जय शत्रुजंय बोलते हुए सीढियों पर पैर रखते हुए लाठी के सहारे अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। तलहटी से आरंभ होने वाला मार्ग ऊपर तक लगभग ३.६ कि.मी. लम्बा तथा लगभग ३५०१ सीढियों वाला है। बीच बीच में कुछ समतल रास्ते भी आते हैं। अनेकप्रकार की देरियों में प्राचीनकाल के महापुरुषों की स्मृतिरूप मूर्तियाँ तथा चरणपादुकाएँ स्थापित हैं। ठहरने या विश्राम करने के लिए, वातावरण को मन भरकर निहारने के लिए या फिर ताजी हवा लेने के लिए कुछ कुछ दूरी पर विश्रामस्थल तथा पानी की प्याऊ आदि बनाई गई हैं। शीतल वायु की लहर प्रदान करने वाले जल से भरे हुए कुण्ड भी सुंदर दिखाई देते हैं। इसप्रकार भक्तिभाव में रचे-पचे और संसार के सुख-दु:ख के द्वन्द्वों से दूर हुए भक्त, ऊपर की ओर बढ़ते जाते हैं।

लगभग २००० फूट की ऊंचाई पर स्थित शत्रुंजय पर्वत पर १०० जितने सुंदर संगमरमर के जैन जिनालय हैं। जिनालयों का इतना बड़ा समूह विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं है। प्राचीन संस्कृति के अद्भुत और अद्वितीय स्थापत्यकला के जिनालयों का नगर संपूर्ण विश्व में अनुपम है। सौन्दर्य, कला और पवित्रता के त्रिवेणी संगम समान शत्रुंजय पर्वत और उसके जैन मन्दिरों का अद्भुत समूह मानवजाति के लिए इतिहास की अनुपम सौगात है। धार्मिक और प्राचीन स्थापत्य कला की दृष्टि से इस तीर्थ का देश-विदेश में महत्त्वपूर्ण स्थान है। मात्र गुजरात- राजस्थान के ही नहीं अपितु देशभर के लाखों श्रद्धालु भक्त, जैन तथा अजैन लोग तथा विदेश में रहनेवाले हजारों जैन और अन्य देश-विदेश के यात्रीगण-पर्यटक बडी संख्या में दर्शन और पूजा भक्ति हेतु यहाँ दौड़े चले आते हैं और भक्ति का लाभ लेते हैं। इस तीर्थ की ख्याति शाश्वततीर्थ के रूप में मानी जाती है। इस अवसर्पिणी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान पूर्व ९९ बार (६९८५४४०००००००००० बार) इस गिरिराज पर पधारे थे। उनके चरणों से पावन बना यह तीर्थ भगवान ऋषभदेवतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। भगवान ऋषभदेव के प्रथम गणधर श्री पुण्डरीक स्वामी ने इसी गिरिराज पर निर्वाण प्राप्त किया था।  इस तीर्थ पर असंख्य पुण्यात्मा आत्मसाधना कर निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए यह तीर्थ सिद्धक्षेत्र अथवा सिद्धाचल के रूप में भी प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र का प्रभाव अद्भुत है। इसके स्पर्शमात्र से कर्ममल नष्ट होते हैं। तीर्थ के दर्शनमात्र से सम्यक दर्शन निर्मल होता है और यात्रा से जीवन कृतार्थ हो जाता है।

वि.सं. १२४४ में तेजपाल मंत्री ने संचार पांजा (बिना नक्काशी के पत्थरों द्वारा निर्मित सौपानरूप पर्वतीय मार्ग) बनवाकार इस तीर्थ पर आरोहण हेतु सुविधा का कार्य किया था। इसके प्राचीन अवशेष आज भी हिंगलाज हडा के पीछे के भाग में देखने को मिलते हैं। ईस्वीसन् १९५२-१९५६ के दौरान आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी ने नवनिर्मित पत्थरों का उपयोग कर ३२१६ जितनी सीढ़ियाँ बनवाकर सुंदर सरल मार्ग का निर्माण किया और फिर तभी से समय समय पर रखरखाव करते हुए मार्ग को सुव्यवस्थित रखा जाता है।

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वि.सं. १२४४ में तेजपाल मंत्री ने संचार पांजा (बिना नक्काशी के पत्थरों द्वारा निर्मित सौपानरूप पर्वतीय मार्ग) बनवाकार इस तीर्थ पर आरोहण हेतु सुविधा का कार्य किया था। इसके प्राचीन अवशेष आज भी हिंगलाज हडा के पीछे के भाग में देखने को मिलते हैं। ईस्वीसन् १९५२-१९५६ के दौरान आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी ने नवनिर्मित पत्थरों का उपयोग कर ३२१६ जितनी सीढ़ियाँ बनवाकर सुंदर सरल मार्ग का निर्माण किया और फिर तभी से समय समय पर रखरखाव करते हुए मार्ग को सुव्यवस्थित रखा जाता है।

तीर्थयात्रा के दौरान खाने-पीने की कोई भी वस्तु साथ में ले जाने का पूर्णत: निषेध है।

अधिकांशत: लोग यात्रा के समय खाना-पीना तो दूर मुँह में कुछ भी नहीं डालते!

वैसे तो पूरी यात्रा नंगे पैर करनी होती है परन्तु आवश्यकता होने पर कपड़े के जूते-चप्पल या जूती आदि मिल जाती हैं।

इस तीर्थ के साथ सैंकड़ो वर्षों से अनेक कथाएँ, उपकथाएँ, दंतकथाएँ जुड़ी हुई हैं।

यह तीर्थ असंख्य जैन श्वेताम्बर श्रद्धालुओं की अपार श्रद्धा और आस्था का जीवंत प्रतीक है।

छोटे-छोटे बच्चों से लेकर वयोवृद्ध भाई-बहिन भी आदीश्वर दादा के प्रति अगाध श्रद्धा के बल पर  कभी कभी तो बिमारी, अस्वस्थता या अशक्ति की भी परवाह किए बिना श्रद्धा-उत्साह के साथ यात्रा करते हैं।

सुविधाएँ

तीर्थाधिराज पर पूजा करने के लिए स्नान आदि हेतु स्नानगृहों की व्यवस्था है। परमात्मा को पुष्प-पुष्पमाला अर्पण करने की भावना रखनेवालों के लिए रामपोल के अंदर के स्थान पर पुष्प विक्रेता लोग बैठते हैं जो यात्रियों को पुष्प-हार वगैरह उपलब्ध करवाते हैं।

पूजा करने वाले भाई-बहिनों के लिए आवश्यक वस्त्रों की व्यवस्था भी उपलब्ध है।

परमात्मा की प्रतिमा पर जल (प्रक्षाल) चंदन वगैरह पूजाओं की बोलियाँ नियमित लगती हैं। इसके अलावा नियत समय पर पूजा करने के इच्छुक भाई-बहिन पूजा कर आनंद प्राप्त करते हैं।

दान-सहयोग देने की भावनावाले यात्रियों के लिए पर्वत पर पेढी कार्यालय की व्यवस्था है। जहाँ इच्छित राशी देकर तथा सोने-चाँदी के आभूषण आदि देकर पक्की रसीद प्राप्त की जा सकती है।

तीर्थ यात्रा के संदर्भ में मार्गदर्शन

तीर्थ यात्रा करनेवाले छोटे बच्चे एवं भाई-बहिनों में जो अशक्त हो, शारीरिक कारण से पैदल चलकर, चढ़कर यात्रा नहीं कर सकते हों उनके लिए कई प्रकार की पालकियों की व्यवस्था भी उपलब्ध है। जय तलहटी के पास इसके लिए एक विशेष कार्यालय (सूचना केन्द्र) कार्यरत है।

सामान्य पालकी, कुर्सी युक्त पालकी, ४ लोगों द्वारा उठाने वाली पालकी, वगैरह पालकियाँ यहाँ उपलब्ध रहती हैं।

यात्रियों की भीड़, पर्व के दिनों में पालकी उठाने के पारिश्रमिक में उतार-चढ़ाव होता रहता है। पर्वत पर चढ़ते समय आधार के लिए बाँस की लाठियाँ भी मिलती हैं।

छोटे बच्चों को ले जाने के लिए तथा थेले-थेली उठाने के लिए भी मजदूर बहिने मिल जाती हैं।

रतनपोल में सीढ़ियाँ चढ़ते ही मध्यभाग में भव्य गगनस्पर्शी ऊँचे मनोहर शिखर वाले गूंबदों की पंक्ति से सुशोभित एक बड़ा जिनमंदिर और मूलनायक तीर्थाधिपति दादाश्री आदीश्वर भगवान का दृष्टिगोचर होता है। दादा के दर्शन होते ही यात्रियों के शीश झूक जाते हैं। ‘जय आदिनाथ’, ‘जय दादा’ का जयघोष लगता ही रहता है। दादा के दर्शन करने पर हृदय नाच उठता है, संताप भूल जाते हैं और भावना बलवति होती है। इतना ही नहीं अपितु हृदय के भाव ऐसे केन्द्रित हो जाते हैं कि हटने का नाम नहीं लेते। दादा के दर्शन व स्तुति करके, चैत्यवंदन करके, काउसग्ग करके, खमासमणा देकर, जाप करके, ध्यान धरके,  और धन्यता का अनुभव करता है। प्रभु के दर्शन में लीन हो जाते हैं। छोटे बालक से लेकर युवा-वृद्ध स्त्री-पुरुष सभी यहाँ आकर दादामय बन जाते हैं। प्रार्थना, स्तवन, विनती, काव्य के स्वर वातावरण को भावमय भक्ति से छलका देता है। छोटे-छोटे बालमुनि, बाल साध्वियों से लेकर बड़े बड़े महान आचार्य भगवंत और साधु-साध्वीजी भगवंत आदि बड़ी संख्या में पधारकर प्रभु के दर्शन-वंदन चैत्यवंदन करते हुए देखना बडी उपलब्धि है। कई लोगों की आँखों से भावपूर्ण अश्रुधारा बहने लगती हैं। प्रभु को अनिमेष दृष्टि से देखते हुए उनकी आँखे नहीं भरती। और वाणी द्वारा शत्रुंजय  के स्वामी के गुणगान न समा नहीं सके वैसा दीप्त और जीवंत दादा का दरबार कभी कभी तो हृदय से हृदय सट जाये ऐसी भक्तों की भीड़ से छलक उठता है। सभी के हृदय में एक ही कामना व एक ही नाद होता है सभी की जिह्वा पर एक ही आवाज़ ‘दादा आदीश्वरजी दूर से आया हूँ दादा दर्शन दो’ के शब्दों में गान के साथ संपूर्ण वातावरण नादमय बन जाता है। एकान्त भी मानो कोलाहल से भर जाता है!

मंदिर की रचना अत्यंत मनोहर है। दादा का मंदिर तलघर से बावन हाथ ऊँचा है। शिखर में १२४५ कलश हैं। इक्कीस सिंहों के विजय चिह्न शोभित हैं। चार दिशा में चार योगिनियाँ हैं। दश दिक्पालों के प्रतीक उसके रक्षित होने को सूचित करते हैं। मंदिर की विशालता को सूचित करने वाली गर्भगृह के आसपास मंडप में बहत्तर देवकुलिकाओं की संरचना है। (यद्यपि रतनपोल के कोट से लगी हुई तो अनेक देवकुलिकाएँ हैं) चार गवाक्ष उनकी भव्यता में वृद्धि करते हैं। बत्तीस पूतलियाँ और बत्तीस तोरण इस मंदिर को कलात्मक बनाते हैं। मंदिर को आधार देने वाले कुल बहत्तर आधार स्तंभ और उनकी कलात्मक संरचना को प्रस्तुत करते हैं। ऐसी सर्वांग सुन्दर रचना के पीछे अपनी अपार संपत्ति का सद्व्यय करने वाले खम्भात के तेजपाल सोनी ने वि.सं. १६४९ में इस मूलमंदिर को ‘नंदिवर्धन प्रासाद’ ऐसा नाम देकर आचार्य भगवंत विजय श्रीदानसूरीश्वरजी तथा आ.भ. श्री विजय हीरसूरीश्वरजी के वरद हस्तों से पुन: प्रतिष्ठित करवाया था। इन सभी सत्कार्यों में उन्होंने विपुल धन का सदुपयोग किया था।

वर्तमान में दादा की प्रतिमा के आसपास जो भव्य और सुन्दर परिकर है उसका निर्माण अहमदाबाद के  शाह सोदागर झवेरी शान्तिदास शेषकरण और उनके भाई शेठ वर्धमान शेषकरण ने वि.सं. १६७० में करवाकर आचार्य भगवंत श्री सेनसूरीश्वरजी गु.भ. के वरद हस्तों से प्रतिष्ठित करवाया है।

शत्रुंजय का इतिहास पौराणिक-ऐतिहासिक काल से घटना प्रधान रहा है।

पौराणिक काल अर्थात् इतिहास के वर्षों की गिनती और उसके आलेखन से पूर्व के युग में इस ज्वाजल्यमान तीर्थ की भव्यता और प्रभावकता चरमसीमा पर थी। भगवान ऋषभदेव स्वयं यहाँ पूर्व में निन्यान्वे बार पधारे थे। उनकी चरण रज से यह तीर्थ पावन बना है। उसके बाद के युग में समय समय पर इस तीर्थ का जीर्णोद्धार होता रहा है। विक्रमसंवत् १०० अथवा १०८ में युगप्रधान आचार्य वज्रस्वामी के वरद हस्त द्वारा मधुमती-महुवा के राजवी श्रेष्ठी श्री जावडशा (जावडिशा) ने अपार संपत्ति का सद् व्यय कर श्री शत्रुंजय महातीर्थ का जीर्णोद्धार करवाने के साथ सुन्दर जिनालय बनवाकर तक्षशिला नगरी से राजा जगमल्ल की धर्मचक्र सभा के तलघर से प्राप्त आदिनाथ के जिनबिंब की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवायी। यह घटना शत्रुंजय के इतिहास में १४ वें उद्धार के रूप में आलेखित की गई है। उसके बाद लगभग बारह सौ वर्ष का इतिहास अज्ञात है अथवा तो उसका विवरण उपलब्ध नहीं है। क्योंकि इतिहासकाल के गर्त में चला गया है। इस दौरान घटित घटनाओं का कोई विवरण सुरक्षित नहीं है या उपलब्ध नहीं है।

विकास के अनेक स्तर जिनमें अति प्राचीन इक्ष्वाकु वंश की क्षत्रिय परंपरा से प्रारम्भ हुई, चौलुक्य युग (१०-१२ वीं शताब्दी), सोलंकी युग (१२-१३ वीं शताब्दी), मुस्लिम नवाबी युग (१३ से १७ वीं शताब्दी) व अंग्रेज सत्ता का समय (१८-१९ वीं शताब्दी) एवं स्वराज्य पश्चात् वर्तमान समय में विकास का व्योम जैसे जैसे विस्तृत होता रहा, वैसे वैसे समय समय पर विनाश की आँधी भी आती रही।

सोलंकी शासन के समय गुजरात के महामंत्री उदयन के समय से शत्रुंजय महातीर्थ की ऐतिहासिक घटनाओं की प्रधानता आरंभ होती है।

श्री शत्रुंजयोद्धार प्रबंध द्वारा जानने को मिलता है कि, कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य, गूर्जर सम्राट कुमारपालदेव और महामंत्री उदयन के समय में श्री शत्रुंजय महातीर्थ पर का मुख्य जिनमंदिर लकड़ी से बना हुआ था। उदयन मंत्री ने उसे पाषाण का बनाने हेतु संकल्प लिया कि “जबतक यह देवमंदिर पाषाण का नहीं बनेगा तबतक मैं सदैव के लिए एकाशन तप करूँगा।” किन्तु युद्ध में उनका देहान्त हो जाने के कारण, उदयन अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरी नहीं करपाये, किन्तु उनके पितृभक्त, धर्मभक्त और राज्यभक्त सुपुत्र बाहड मंत्री ने पिता की भावना पूर्ण करने हेतु, श्री शत्रुंजय के मुख्य मंदिर को पाषाण से निर्मित करवाकर विक्रमसंवत् १२१३ में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य के वरद हस्तों से उसकी प्रतिष्ठा करवायी।

इसके बाद इस पहाड़ पर, वाघेला राज्यशासन में, महामंत्री वस्तुपाल-तेजपाल के समय में, और उसके बाद के समय में भी नये नये देव मंदिरों का निर्माण होने लगा और तीर्थ की शिल्पकला की शोभा में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी। जिनमंदिर की यह वृद्धि अधिकांशत: दादा के मुख्य जिनालय के आसपास हुई थी।

किन्तु दुर्भाग्य से, यह वृद्धि अनवरत नहीं चल सकी, और १४ शताब्दी के उत्तरार्ध में, विक्रमसंवत् १३६९ में तीर्थ पर मुसलमानों के आक्रमण के कारण, तीर्थ के मंदिर और मूर्तियाँ खण्डित हुई और तीर्थ बहुत बड़े संकट में आ गया। इस भयंकर संकट के समय में, पाटण के श्रेष्ठी देशलशा के प्रभावी और समर्थ सुपुत्र समराशा ओसवाल ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया और पुन: प्रतिष्ठा करवाने का बीड़ा उठाकर तीर्थोद्धार का कार्य दो वर्ष जितनी छोटी समयावधि में सफलतापूर्वक पूरा करवाकर विक्रमसंवत् १३७१ में उसकी प्रतिष्ठा तत्कालीन महान आचार्य भगवंत श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी के पावन सानिध्य में उनके ही वरद हस्तों से करवायी। जो १५ वें उद्धार की स्मृतिरूप बन गया।

इसके बाद दो शताब्दी पश्चात् विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, मुस्लिमों के आक्रमण के कारण यह तीर्थ पुन: खण्डित हो गया। इस समय चित्तोड़गढ के मंत्री स्वनामधन्य कर्माशाह ने, बड़ा साहस दिखाकर, विक्रम संवत् १५८७ में इस तीर्थ का १६ वाँ जीर्णोद्धार करवाया और महान मंत्रविद्या विशारद आचार्य भगवंत विद्यामंडनसूरीजी के हाथों से इसकी प्रतिष्ठा करवायी। ये महान आचार्य इतने विनम्र और प्रसिद्धि से दूर रहने वाले थे कि प्रतिष्ठा के समय शिलालेख में अपना नाम न लिखवाकर “सर्व सूरिभ्य” ऐसा उत्कीर्णन करवाया। महातीर्थ के जीर्णोद्धार की परम्परा में मंत्रीश्वर कर्माशाह द्वारा किया गया जीर्णोद्धार, वह अबतक के अंतीम जीर्णोद्धार के रूप में आलेखित है। यह उद्धार कुछ ऐसे शुभमुहूर्त में और सुदृढ़ नींव पर हुआ है कि जिससे इस तीर्थ पर आने वाली किसी भी आपत्ति या समय के प्रभाव के कारण तीर्थ को नवीन जीर्णोद्धार की आवश्यकता नहीं पड़ी। यद्यपि समय समय पर कुछ सुधारकार्य संरक्षाकार्य अवश्य किये जाते रहे हैं। इसी समयावधि में विक्रमसंवत् १६५० (ईस्वीसन् १५९४) में प्राचीन और जीर्ण हुए प्रासाद को खम्भात के श्रेष्ठि श्री तेजपाल सोनी ने पुन: निर्मित करवाकर उसका नाम “नंदिवर्धन प्रासाद” रखा। जिसकी पुन: प्रतिष्ठा जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के वरद हस्तों से करवायी। तब मूलनायक भगवान की प्रतिष्ठा करवायी हो ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता, और उसे पुनरोद्धार या जीर्णोद्धार का नाम नहीं दिया है। वर्तमान में जो जिनालय विद्यमान है वह यह नंदीवर्धन प्रासाद ही है। इससे संदर्भित विक्रमसंवत् १६५० का एक शिलालेख भी यहाँ उपलब्ध है।

विक्रम की सत्रहवीँ शताब्दी तो जैन शासन प्रभावनी की दृष्टि से तथा शत्रुंजय तीर्थ की महिमा में अभिवृद्धि की दृष्टि से – इसप्रकार दोनो दृष्टि से, जैन संस्कृति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित करने योग्य थी।

इस तीर्थ के संचालन, संरक्षण और संवर्धन में गुजरात के संघ जैसे कि पाटण, धोलका, खम्भात, राधनपुर, सुरत, अहमदाबाद का बड़ा योगदान रहा है। वैसे तो समग्र भारतवर्ष के संघों के साथ व सहकार से ही इस तीर्थ का विकास हुआ है। सोलंकीकाल में इस तीर्थ का संचालन पाटण के जैन संघ के श्रेष्ठि महाजन और मंत्री करते थे। वाघेला शासन के समय अर्थात् वस्तुपाल-तेजपाल के समय में पूरा संचालन धोलका से होता था। उसके बाद मुगलकाल में राधनपुर, खम्भात तथा अहमदाबाद के अग्रणी जैन श्रेष्ठि करते रहे। नगरशेठश्री शान्तिदास शेठ के समय में और उसके पश्चात् भी अहमदाबाद के नगरशेठ और श्रेष्ठि ही संचालन करते रहे हैं। लगभग वि.सं. १७८७ से अहमदाबाद स्थित जैन संघ की प्रतिनिधि संस्था शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी ने इस तीर्थ का संचालन विधिवत् संभाला, और उसके पश्चात् यह पेढ़ी नियम-संविदा बनाकर वि.सं. १९६८ (ई.सन् १९१२) से भारतवर्ष के समग्र श्वेताम्बर जैन संघ का प्रतिनिधित्व करने वाली बन गई। तीर्थ के विकास क्रम में सक्रिय सहयोगी बनकर और संरक्षित-संवर्धित करने का उत्तरदायित्व जो वर्षों से संभाल रही थी उसे आगे बढ़ाया।

मुगलकाल में इस महातीर्थ की रक्षा हेतु आचार्य भगवंत, श्रेष्ठि महाजन अत्यंत चिंतित थे। जगद्गुरु हीरविजयसूरीजी तथा उनके प्रतिभाशाली प्रभावी शिष्य, सूरिसवाई विजयसेनसूरीजी, विजयदेवसूरिजी, उपाध्याय शांतिचंद्रजी, उपाध्याय भानुचंद्रजी, उपाध्याय सिद्धिचंद्रजी वगैरह के निरंतर उपदेश, प्रेरणा और आशीर्वाद से मुगल बादशाह अकबर द्वारा शत्रुंजय वगैरह ७ तीर्थों का स्वामीत्व तथा संचालन के अन्य अधिकार आदेश देकर हीरविजयसूरीजी के नाम पर भेंटरूप घोषित किए थे। किसी भी प्रकार के कर या टेक्स नहीं लेने का आदेश दिया था। अकबर के बाद तत्कालीन मुगल बादशाह के दरबारी झवेरी के रूप में प्रसिद्ध अहमदाबाद के शाह सोदागर और जैन श्रावक परंपरा के प्रतिभ अग्रणी शेठ शांतिदास शेषकरण झवेरी से प्रभावित एवं प्रसन्न रहने वाले शाहजहाँ, जहाँगीर, मुरादबक्ष, औरंगजेब वगैरह ने भी शत्रुंजय वगैरह तीर्थ शांतिदास को भेंटरूप दिये होने के आदेश पारित किये थे। शत्रुंजय की सभी आय-उपज और लागत का अधिकार नगरशेठ श्री शांतिदास शेठ और उनके वंशजों का है ऐसे आदेशपत्र लिखवाये थे। ऐसे कुल ९ आदेशपत्र जारी किए थे।

अकबर द्वारा १ आदेश क्रमांक १

जहाँगीर द्वारा २ आदेश क्रमांक २ और ८

शाहजहाँ द्वारा ३ आदेश क्रमांक ३, ४ और ५

मुरादबक्ष द्वारा १ आदेश क्रमांक ६

ओरंगजेब द्वारा २ आदेश क्रमांक ७ और ९

इनमें से ७ आदेश आज भी आणंदजी कल्याणजी पेढी के पास संरक्षित हैं।

मुगल सल्तनत के अंतिम समय के साथ ही देश के छोटे-छोटे राज्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता, अपने विस्तार को बढ़ाने में तत्पर हो गये। इधर एक ओर अंग्रेज/फिरंगी आदि एक के बाद एक राज्य पर अधिकार जमाने लगे थे। ऐसे समय में ‘अधिकार के विषय में मुगल आदेशों का कोई मूल्य या महत्त्व नहीं रहेगा’ इस वास्तविकता को ध्यान में रखने वाले समय को जानने लावे, दूरदृष्टि वाले शांतिदास शेठ ने तत्कालीन गोहिलवाड (सौराष्ट्र में भावनगर के आसपास का विस्तार) के राजा कांधल से शत्रुंजय तीर्थ के संचालन हेतु अत्यंत महत्त्वपूर्ण करार किया। इस करार को करते समय अहमदाबाद के वीशा श्रीमाली जाति के दो धुरन्धर बंधु शाह रतनजी और शूरा को उन्होंने अपने साथ रखा। यद्यपि इससे पहले करार में कोई निश्चित् रकम देने की कोई बात नहीं थी तथापि बार-त्योहार, प्रसंगादि के समय भेंट स्वरूप वस्तु, नकदराशि आदि देने की व्यवस्था की गई थी।  इस करार के पश्चात् १७० वर्ष जितनी दीर्घ समयावधि तक परस्पर समझ और विश्वास के सुदृढ़ आधार पर यह व्यवस्था चालु रही। उसके बाद वि.सं. १८७७ से १९८४- ई.सन् १८२१ से वि.सं. १९२८ तक पालीताणा के उस समय के राजवी ठाकुर के साथ अन्य चार करार हुए जिसमें प्रत्येक वर्ष निश्चित राशि देने की व्यवस्था थी। इसप्रकार व्यवस्था संचालन होता रहा।

संविदा वि.सं. ई.सन् संविदा वर्ष संविदा राशि
१. १८७७ १८२१ १० ४,५००/-
२. १९१९ १८६३ १० १०,०००/-
३. १९४२ १८८६ ४० १५,०००/-
४. १९८४ १९२८ ३५ ६०,०००/-

ये सभी संविदाएँ उस समय के जमींदार के साथ पेढ़ी व श्रावकों द्वारा की गई थी। पहली संविदा लगभग १७० वर्ष जीतने दीर्घ समय तक चली। दूसरी संविदा भी ४० वर्ष तक रही। तीसरी संविदा के पश्चात् २ वर्ष मूंडकावेरा की (प्रति यात्री पर निश्चित यात्राकर) परिस्थिति सर्जित हुई। चौथी संविदा का समय पूर्ण होने पर यात्राकर की स्थिति पुन: आरंभ हो गई। वि. सं. १९८२ में पालीताणा के तत्कालीन जमींदार साहब बहादुरसिंहजी की हठधर्मिता और मनमानी के कारण यात्राकर जैसे कर का प्रस्ताव लागु किया गया।  आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी के अग्रगणीयों के अनुरोध से भारतवर्ष के सभी जैन संघों ने इसका कठोर विरोध किया और शत्रुंजय की यात्रा करना बंद रखा। यह एक अत्यंत दु:खप्रद निर्णय था परन्तु उस समय भारतवर्ष के श्वेताम्बर जैन संघ की एकता के प्रभाव से वह कार्य सम्भव हुआ। वि.सं. १९८२ चैत्र कृष्णपक्ष ३, गुरुवार, दि. १-४-१९२६ से वि.सं. १९८४ ज्येष्ठ शुक्ल १३, शुक्रवार, दि.१-६-१९२८ तक यात्रा पूर्णत: बंद रही। फिर पालीताणा के जमींदार को ३५ वर्ष तक वार्षिक रुपये ६० हजार रुपये देने की संविदा के साथ समाधान हुआ और वि.सं. १९८४ ज्येष्ठ शुक्लपक्ष १३, शुक्रवार दि. १-६-१९२८ के दिन से तीर्थाधिराज की यात्रा पुन प्रारम्भ हुई। फिर देश स्वतन्त्र होने के बाद १९-०३-१९४८ से तत्कालीन सौराष्ट्र सरकार ने सभी संविदाओं को रद्द किया और यात्रा सभी लोगों के लिए सुलभ हो गई।

शत्रुंजय-पालीताणा द्वारा देखी गई धूप-छाँव का इतिहास रोमांचक है, दु:खप्रद है, और कहीँ कहीँ आघात जनक भी है, तथापि जैन शासन की एकता, धैर्य, दृढ़ता और गौरव की अनुभूति करवाने वाला भी है।

शत्रुंजय महातीर्थ में सीमा-चिह्नरूप अन्य विकास-कार्य

रामपोल, सगालपोल, वाघण पोल, हाथी पोल, रतनपोल आदि पोलों का नवनिर्माण ईस्वीसन् १९६३-६४ में शेठ कस्तुरभाई लालभाई के परिवार द्वारा किया गया। प्रत्येक द्वार कलात्मक पत्थर से एवं और मनोहारी ढंग से उत्कीर्णित किया गया है।

लगभग ५८ वर्ष पूर्व ईस्वीसन् १९५२-५६ के मध्य आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी के द्वारा तलहटी से रामपोल तक नवनिर्मित पत्थरों का उपयोग कर ३५०१ जितनी सीढ़ियाँ बनवाने के साथ सुंदर मार्ग का पुन: निर्माण करवाया गया और उसके बाद समय समय पर रखरखाव करते हुए उसे व्यवस्थित रखा जाता है।

इसीप्रकार घेटी पाग के मार्ग की सीढ़ियों का भी पुन:निर्माण पेढ़ी के द्वारा ईस्वीसन् १९६५ में करवाया गया।

शत्रुंजय पर्वत पर निर्मित वर्तमान जिनभवनों का शिल्प-स्थापत्य और निर्माण भारतीय सोलंकी-पश्चात्-सोलंकी कालीन व्याप्त और सुप्रसिद्ध मेरु गूर्जर शैली का है।

भक्तिभाव का सागर जहाँ बहता हो वहाँ नियम, मर्यादाएँ, परम्पराएँ और शिल्प स्थापत्य को यथावत संरक्षित रखना कठिन है, यह स्वाभाविक है। शत्रुंजय के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

पवित्र शत्रुंजय पर्वत पर जिनालय का निर्माण करना पुण्यानुबंध पुण्य का प्रबल प्रतिक प्रस्थापित होने के कारण अनेक श्रद्धा सम्पन्न महानुभव समर्पितभाव से दादा के जिनालय के आसपास छोटे-बड़े कई जिनालयों का निर्माण करवाते रहे। समय के साथ वह पूरा क्षेत्र सघन हो गया। वि.सं. १८७६ चैत्र पूर्णिमा के दिन श्री संघ ने एक प्रस्ताव जारी किया जिसके द्वारा उस विस्तार अर्थात् हाथीपोल के चोक में नवीन जिनालय, देवकुलिकाएँ आदि बनाने पर कठोर शब्दों में प्रतिबंध रखा गया। देवकुलिकाएँ या जिनालय बनाना बंद हुआ किन्तु श्रद्धालुओं द्वारा प्राचीन स्थापत्यकला के एक उत्तम नमूनेरूप दादा के विशाल और उत्तंग जिनप्रासाद के आसपास तथा अन्यत्र, जहाँ जहाँ जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित करने हेतु रिक्त स्थान दिखाई दिया वहाँ वहाँ शिल्प शास्त्र के नियमों को अनदेखा कर, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा विधि की अवहेलना कर आशातना का कोई विचार किए बिना स्थान स्थान पर, अलग अलग समय में सैंकड़ो जिनप्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गई। इस कारण मुख्य जिनालय तथा अन्य स्थानों की शिल्पकला का वैभव छिप गया और जाने-अनजाने में अनेकप्रकार की आशातना भी होने लगी।

इस आशातना को दूर करनी हो, जिनप्रासाद की अवरुद्ध हुई शिल्प समृद्धि और भव्यता को उजागर करना हो, शिल्पशास्त्रक  नियमों का पालन करना हो तो यहां-वहाँ चाहे जैसे प्रतिष्ठित की गई पाँच सौ से अधिक जिनप्रतिमाओं को वहाँ से उत्थापित कर उनकी अन्यत्र पुन:प्रतिष्ठा करना आवश्यक हो गया था।

नई टूंक का निर्माण

पेढ़ी द्वारा इस सन्दर्भ में वि.सं. २०१८/ ई.सन् १९६२ की बैठक में दादा की टूंक के जीर्णोद्धार का निर्णय लिया गया। इस विषय में जैन संघ के तत्कालीन आचार्य भगवंत, पदस्थ मुनि भगवंत से शास्त्रीय मार्गदर्शन तथा दिशा-निर्देश लिया गया। अत्यंत संवेदनशील ऐसे इस विषय पर वि.सं. २०२० में पेढ़ी के ट्रस्टीओं द्वारा सर्वानुमति से निर्णय लेकर कार्यवाही का आरंभ किया गया। जिसके अंतर्गत वि.सं. २०२० श्रावण कृष्णपक्ष ३ के दिन १७० जितनी जिनप्रतिमाओं को सम्मानपूर्वक विधि सहित उत्थापित की गई। इसीप्रकार वि.सं. २०२१ ज्येष्ठ कृष्णपक्ष १० के दिन अन्य ३५० जितनी जिनप्रतिमाओं को उत्थापित किया गया। दादा की टूंक के समीप नवीन जिनालय-संकुल, नवीन टूंक के नवनिर्माण हेतु शिलान्यास विधि वि.सं. २०२२ ज्येष्ठ कृष्णपक्ष १/४-६-१९६६ के दिन श्रेष्ठिवर्य श्री कस्तूरभाई लालभाई के करकमलों द्वारा किया गया। समग्र निर्माण-प्रक्रिया को सम्पन्न होने में १० वर्ष का समय लगा। बीच में थोड़े विघ्न अवश्य आये, समस्याएँ आई, गलतफहमी उत्पन्न हुईं तथापि श्री संघ के प्रबल पुण्योदय के कारण विघ्नों के बादल हट गये और संघ की एकता का सूर्य प्रकाशित हुआ। श्रेष्ठी करमशा द्वारा वि.सं. १५८७ में किया गया सोलहवें जीर्णोद्धार के बाद चार सौ पैंतालीस वर्ष पश्चात्, तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय महागिरि पर जीर्णोद्धार का प्रसंग सम्पन्न हुआ। विविध गच्छ समुदायों के पदस्थ मुनिभगवंत और सुविशाल श्रमण-श्रमणी गण तथा विशाल जनसमुदाय जैसे श्रावक-श्राविका समूहरूप चतुर्विध श्री संघ की श्रद्धा-भक्ति-समर्पण युक्त उपस्थिति में, वि.सं. २०३२ पोष कृष्णपक्ष १४,  दि. ३०-०१-१९७६, शुक्रवार से महा शुक्लपक्ष ८, दि. ८-२-१९७६ रविवार तक दस दिन के विविध प्रकार के उत्सव और आयोजन के साथ नूतन बावन जिनालय वाले जिन प्रासाद की प्रतिष्ठा महोत्सव भव्यता से मनाया गया। वि.सं. २०३२ महा शुक्लपक्ष ७, ७-२-१९७६ के दिन नूतन जिनालय में मूलनायक आदीश्वर दादा सहित सभी जिन-प्रतिमाओं को बिराजमान किया गया।  जैन परम्परा के संविग्न आचार्य भगवंतों के मार्गदर्शन और सान्निध्यता में श्रद्धापूर्वक मनाया गये इस महोत्सव हेतु स्व. शेठ कस्तूरभाई लालभाई की दूरदर्शिता, चातुर्य और सुदृढ़ व्यक्तित्व ने बड़ा योगदान दिया। उनके तत्कालीन साथी-सहयोगी दल का यह अभूत्पूर्व कार्य माना गया।

नौ टूँक

श्री शत्रुंजय पर्वत का दूसरा शिखर टूँकों के संख्याबंध जिनमंदिरो से सुशोभित हुआ और कुंतासर की गहरी खाई को भरकर उसके ऊपर श्री मोतीशा शेठ की विशाल नवीन टूँक की रचना हुई। इसप्रकार नौं टूंक अस्तित्व में आई। मुगलकाल का समय यद्यपि ध्वंस और विध्वंस का था किन्तु यह तीन-चार सौ वर्ष का समय श्री शत्रुंजय तीर्थ के लिए अधिकतम विकास के प्रसंग भी साथ लेकर आया था। इस बात की प्रतीति नौं टूंक की स्थापना का समय करवाता है। श्री शत्रुंजय पहाड़ के दूसरे शिखर पर सबसे पहले वि.सं. १६७५ में खरतरवसही के नाम से सवा सोमा की टूंक के गगनस्पर्शी चतुर्मुख जिनप्रासाद की संरचना हुई थी, जो टूंकों की यात्रा के क्रम में दूसरी टूंक गिनी जाती है, और सबके अंत में वि.सं. १९२१ में (सवा सोमा की टूंक के पश्चात् २४६ वर्ष में) सेठ नरशी केशवजीनायक की टूंक की स्थापना हुई थी, टूंको की यात्रा के क्रम अनुसार पहले यह टूंक आती है।

९ टूंकों का वर्णन

१.खरतरवसही-सवा-सोमा की (चौमुखजी की) टूंक, (दूसरी टूंक) वि.सं. १६७५-ई.सन् १६१९

२.छीपावसही की टूंक वि.सं. १७९४ (तीसरी टूंक) ई.सन् १७३८

३.प्रेमवसही-प्रेमचंद मोदी की टूंक, १८४३ (सातवीँ टूंक) ई.सन् १८३०

४.हेमवसही-हेमाभाई सेठ की टूंक, वि.सं. १८८६ (छठी टूंक) ई.सन् १८३०

५.उजमफई की टूंक, वि.सं. १८८९ (पाँचवी टूंक) ई.सन् १८८३

६.साकरवसही-साकरचंद प्रेमचंद की टूंक, वि.सं. १८९३ (चौथी टूंक) ई.सन् १८३७

७.बालावसही-बालाभाई की टूंक, वि.सं. १८९३ (आठवीं टूंक) ई.सन् १८३७

८.मोतीशा की टूंक, वि.सं. १८९३ (नौंवीं टूंक( ई.सन् १८३७

९.नरशी केशवजी की टूंक वि.सं. १९२१ (पहली टूंक) ई.सन् १८६५

अब नौं टूंको पर विस्तृत चर्चा करते हैं।

हनुमान धारा से होते हुए जाने पर पहले चौमुखजी की टूंक आती है जहाँ कच्छ के सेठ नरशी केशवजी की स्मृति में निर्मित कुंड दृष्टिगोचर होता है।

१.नरशी केशवजी नायक टूंक

खरतरवसही में प्रवेश करते ही दायीं ओर नरशी केशवजी द्वारा वि.सं. १९२१ (ई.स. १८६५) में निर्मापित मन्दिर आता है। उसके बाद अभिनंदन स्वामी का माल-मजलावाला मन्दिर आता है।

इस टूंक में प्रवेश करते ही शान्तिनाथ भगवान और मरुदेवी माता के प्राचीन स्थान भी आते हैं। शान्तिनाथ भगवान का वर्तमानस्थ मन्दिर तो चौदहवीं शताब्दी का है और मरुदेवी का मन्दिर भी वर्तमान स्वरूप में पिछले काल में निर्मित है परन्तु दोनों स्थलों का उल्लेख सोलंकी कालीन साहित्य में मिलता है इसलिए ये मन्दिर वास्तव में विशेष प्राचीन होने चाहिये।

उसके पश्चात् इस टूंक में अंशत: संख्या में आधुनिक मन्दिर हैं, जिसमें सेठ नरशी नाथा द्वारा वि.सं. १८९३ (ई.स.१८३७) में बनवाया गया चंद्रप्रभु का मन्दिर है, सेठ देवशी पुनशी सामत का चौवीसीयुक्त धर्मनाथ का मन्दिर, उसके बाद कुंथनाथ, अजितनाथ और चंद्रप्रभ के छोटे मन्दिर, उसके पश्चात् मुर्शिदाबाद के बाबू इन्द्रचंद नहालचंद का मन्दिर आता है।

वि.सं. १८९१ (ई.स. १८३५) में निर्मित आदीश्वरदेव का मन्दिर, उसके पश्चात् चौमुखजी का देवालय और उसके समीप में मुर्शिदाबाद वाले बाबू हरखचंद गुलेच्छा द्वारा वि.सं. १८९५ (ई.स.१८३९) में बनवाया गया सुमतिनाथ का मन्दिर, बाबू प्रतापसिंह दुग्गड द्वारा वि.सं.१८९१ (ई.स.१८३५) में बनवाया गया संभवनाथ का मन्दिर और उसकी बगल में आदीश्वरदेव का मन्दिर है।

२. सवा सोमा की (खरतरवसही) चौमुखजी की टूंक

यहाँ से आगे चौमुखजी की टूंक में प्रवेश करने पर आदीश्वरदेव भगवान का ऊँचा चतुर्मुख मन्दिर दृष्टि में आता है। जिसका निर्माण अहमदाबाद के खरतरगच्छीय शिवजी सोमजी ने वि.सं. १६७५ (ई.स.१६१९) में करवाया, (चित्र ८) अपनी ऊंचाई और आयोजन की भव्यता के कारण अनोखा दिखाई देने वाले इस मन्दिर की गिनती सत्रहवीं शताब्दी के उत्तम देवालयों में होती है। इस जिनालय की छत तथा दीवारों पर अति सुन्दर चित्रकारी की गई है। जो वास्तव में अद्भुत है। वि.स. १६९५ (ई.स १६३९ ) में प्रस्तुत श्रेष्ठी द्वारा निर्मापित पुण्डरिक स्वामी का मन्दिर तथा उसी वर्ष में खीमजी सोमजी द्वारा बनवाया गया पार्श्वनाथ का मन्दिर, उसके पश्चात् अहमदाबाद के सेठ करमचंद हीराचंद द्वारा वि.सं. १७८४ (ई.स. १७२८) में बनवाया गया सीमंधरस्वामी का मन्दिर, और सेठ सुंदरदास रतनजी द्वारा बनवाया गया शान्तिनाथ का मन्दिर है। उसकी बगल में अहमदाबाद क भणशाली कमलशी सेन द्वारा बनवाया गया अजिनाथ का मन्दिर है। मुख्य चतुर्मुख मन्दिर के चारों ओर इन सभी मन्दिरों का आयोजन सामंजस्य के सिद्धान्त पर बना होने के कारण पूरा आयोजन समतोल दिखाई देता है।

इस टूंक के मुख्य जिनालय का शिखर लगभग १५ कि.मी. दूर से दिखाई देता है।

३.छीपावसही टूंक

खरतरवसही टूंक की बगल में पहाड़ियों की ढ़लान पर छीपावसही टूंक स्थित है। उसमें चार प्राचीन और तीन अर्वाचीन मन्दिर हैं। उसमें छीपावसही नामक पूर्वाभिमुख मन्दिर मुख्य है। उसकी वि.सं.१७९१ (ई.स.१७३५) में भावसारों ने पुन: प्रतिष्ठा करवायी है किन्तु वह मूलत: चौदहवीं शताब्दी में निर्मित है और उस समय भी छीपावसही के नाम से जाना जाता था। ऐसा पुरानी तीर्थमालाओं से जानने को मिलता है। छीपावसही शत्रुंजय पर स्थित उत्तम मन्दिरों में से एक है। इस जिनालय में प्राचीन अद्भुत चित्रकारी देखने लायक है। छीपावसही के पीछे स्थित मन्दिर अधिकांशत: तो संघवी पेथड़ के समय का होगा। चैत्यपरिपाटियों में उसका टोटरा विहार के रूप में परिचय दिया है, जबकि गढ़ की रांग से लगा हुआ श्रेयासंनाथ का मन्दिर खरतरगच्छीय श्रावको ने वि.सं. १३७७ (ई.स.१३२१) में पुन: बनवाया है, और मध्यकाल में वह मोल्हावसही के नाम से जाना जाता था। श्रेयांसनाथ का यह मन्दिर पहले भी वहाँ था।

४.साकरवसही टूंक

श्रेयांसनाथ के मन्दिर के पीछे के भाग में स्थित कोट के अंदर साकरवसही की टूंक है, जिसे अहमदाबाद के सेठ साकरचंद प्रेमचंद ने वि.सं. १८९३ (ई.स.१८३७) में बनवाई है। यहाँ मुख्य मन्दिर चिंतामणी पार्श्वनाथ का है, उसके सामने पुण्डरिक स्वामी का जिनालय है। बगल में सेठ लल्लुभाई जमनादास द्वारा बनवाया गया पद्मप्रभस्वामी का वि.सं. १८९३ (ई.स. १८३७) का, तथा सेठ मगनलाल करमचंद द्वारा बनवाया गया उसी तिथि का पद्मप्रभ का मन्दिर भी स्थित है।

प्रस्तुत टूंक के पीछे पाँच पाण्डवों का कथित मन्दिर है। शाह दलीचंद कीकाभाई ने उसमें वि.सं. १४२१ (ई.स.१३६५) में पाँच पाण्डवों की प्रतिष्ठा करवाई है। वास्तव में यह मन्दिर माण्डवगढ़ के मन्त्री पीथड़-पेथड़शाह द्वारा बनवाया गया है। मूलत: उसमें आदिनाथ प्रतिष्ठित थे। मन्दिर के गुम्बद तथा शिखर पर नक्काशी है। मन्दिर दक्षिणाभिमुख है। इस मन्दिर के पीछे और चौमुख टूंक में जिसका द्वार है, वह सहस्रकूट का मन्दिर सुरत के मूलचंद मयाभाई बावचंद ने वि.सं. १८६० (ई.स.१८०४) में बनवाया था।

५. उजमफई की टूंक

आगे बढ़ने पर उजमफई की टूंक आती है। अहमदाबाद के नगरसेठ प्रेमाभाई की बुआ उजमफई ने वहाँ नंदीश्वरद्वीप की मनोहर रचना करवाई है। उसके प्रवेशद्वार पर लालित्ययुक्त स्तम्भावली है, और मूल चैत्य की दीवार पर सुन्दर नक्काशी युक्त जालियाँ हैं। इस स्थल से आदीश्वर की टूंक का भव्य दर्शन होता है।

६.हीमावसही की टूंक

आगे बढ़ने पर हीमावसही की टूंक आती है। अहमदाबाद निवासी अकबर मान्य सेठ शान्तिदास के वंशज नगरसेठ हीमाभाई वखतचंद ने वि.सं. १८६६ (ई.स.१८३०) में इस मन्दिर का निर्माण व प्रतिष्ठा करवाई थी।

इस समूह में मुख्य मन्दिर अजितनाथ का है, साथ ही पुण्डरीक स्वामी का मन्दिर भी है, और चौमुखजी भी है। जबकि दूसरा चौमुख मन्दिर सेठ साकरचंद प्रेमचंद द्वारा वि.सं. १८८८ (ई.स. १८३२) में बनवाया गया है। टूंक के बाहर जीजीबाई के नाम से पहचाने जाने वाला कुण्ड है।

७.प्रेमावसही की टूंक

नीचे उतरने पर प्रेमावसही की टूंक आती है। अहमदाबाद के सेठ प्रेमचंद लवजी मोदी ने वि.सं. १८४३ (ई.स. १७८७) में स्थापना की थी। टूंक में आदिनाथ का मुख्य मन्दिर तथा पुण्डरीक स्वामी का मन्दिर उनके द्वारा बनवाया गया है। जबकि संगमरमर से बना सहस्रफणा पार्श्वनाथ जिनालय सुरत के सेठ रतनचंद झवेरचंद घुस द्वारा बनवाया गया है।

इस मन्दिर के सामने संगमरमर का दूसरा सहस्रफणा पार्श्वनाथ का मन्दिर प्रेमचंद झवेरचंद घुस ने बनवाया है। इस टूंक में पालनपुर के मोदी सेठ का अजितनाथ मन्दिर, महुवा के नीमा श्रावकों का चन्द्रप्रभ का मन्दिर तथा राधनपुर के सेठ लालचंद द्वारा बनवाया गया चंद्रप्रभ का दूसरा मन्दिर भी है। कोट के बाहर कुण्ड और खोड़ीयार माता का स्थानक है।

मोदी टूंक से नीचे लगभग पिचहत्तर जितनी सीढ़ियाँ उतरने पर शीला पर उत्कीर्ण अद्भुत आदिनाथ की बारह हाथ ऊँची मूर्ति स्थित है, इसकी ऊँचाई १८ फूट और चौड़ाई १४.६ फूट है।  इसकी पुन: प्रतिष्ठा वि.सं. १६८६ (ई.स.१६३०) में धर्मदास सेठ ने करवायी थी। इस प्रतिमा का जिनप्रभसूरि ने पांडवकृत आदिनाथ के रूप में और चैत्यपरिपाटीकों ने ‘स्वयं आदिनाथ’ ‘अद्भुत आदिनाथ’ आदि शब्दों के द्वारा उल्लेख करने के कारण, ये प्राचीन है। ये भगवान श्रीअदबदजी भगवान के रूप में भी प्रसिद्ध हैं।

८.बालावसही की टूंक

यहाँ से नीचे उतरने पर घोघा के सेठ दीपचंद कल्याणजी उपनाम बालाभाई द्वारा निर्मापित बालावसही की मन्दिर समूह आता है, उसमें बालाभाई सेठ ने वि.सं. १८९३ (ई.स. १८३७) में बनवाया गया आदिनाथ तथा पुण्डरीकस्वामी के मन्दिर, उसके बाद मुंबई के फतेहचंद खुशालचंद की धर्मपत्नी उजमबाई द्वारा वि.सं. १९०८ (ई.स.१८५२) में बनवाया गया चौमुखजी मन्दिर, कपडवंज के मीठाभाई गुलाबचंद द्वारा वि.सं. १९१६ (ई.स. १८६०) में बनवाया गया वासुपूज्य का मन्दिर इसके अलावा मानचंद वीरचंद और पुना के शाह लखमीचंद हीराचंद द्वारा बनवाये गये मन्दिर सम्मिलित हैं।

९.सेठ मोतीशा की टूंक

शत्रुंजय के दो शिखरों के बीच में पूर्व निर्देशित मोतीशा सेठ की टूंक स्थित है। उसकी प्रतिष्ठा मोतीशा सेठ के पुत्र खीमचंदभाई ने वि.सं. १८९३(ई.स.१८३७) में करवाई थी। इसमें मुख्य मन्दिर तथा पुण्डरीकस्वामी का मन्दिर मोतीशा सेठ द्वारा निर्मापित है। जबकि पहला धर्मनाथ का मन्दिर अहमदाबाद के सेठ हठीसिंग द्वारा और दूसरा अमरचंद दमणी द्वारा निमार्पित है, इसके अलावा वहाँ चोक में दो आमने-सामने चौमुख मन्दिर हैं। जिसमें पहला मोतीशा सेठ के मामा प्रतापमल्ल जोइता द्वारा तथा दूसरा धोलेरा के सेठ वीरचंद भाईचंद द्वारा बनवाया गया है। इसके अलावा भी यहाँ अन्य नौ मन्दिर हैं। जिनका वर्णन निम्नासुर है।

१.चौमुखजी का मन्दिर मांगरोल के नानजी चीनाई द्वारा

२.आदीश्वर का मन्दिर अहमदाबाद के गलालभाई

३.पद्मप्रभ का मन्दिर पाटण के सेठ प्रेमजी रंगजी

४.पार्श्वनाथ का मन्दिर सुरत के सेठ खुशालचंद ताराचंद

५.सहस्रकूट का मन्दिर मुंबई के सेठ जेठाशा नवलशा

६.संभवनाथ का मन्दिर सेठ करमचंद प्रेमचंद

७.सुपार्श्वनाथ का मन्दिर खम्भात के पारेख स्वरूपचंद हेमचंद

८.महावीरस्वामी का मन्दिर पाटण के सेठ जेचंद पारेख

९.गणधर चरणपादुका का मन्दिर सुरत के सेठ खुशालचंद ताराचंद द्वारा

इस टूकं के बाहर वापी-कुण्ड है। कुण्ड के किनारे पर कुन्तासर देवी की मूर्ति है।

शत्रुंजय के साथ नौ का अंक अनेक प्रकार से जुड़ा हुआ है, जिसमें नौ टूंक भी शत्रुंजय की यशकीर्ति में वृद्धि करती है।

घेटीपाग यात्रा परिचय

एक दिन में दो यात्रा करने वाले महानुभाव दूसरी यात्रा घेटी पाग से करते हैं। दूसरी यात्रा करने वाले यात्रीगण एक यात्रा करने के बाद सगालपोल से बाहर निकलकर कुंतासर चोक में आते हैं। वहाँ से बायीं ओर के मार्ग से घेटी पाग की ओर जाते हैं। थोड़ा आगे चलने पर कुंतासर की खिड़की (अथवा घेटी की बारी) आती है।

उससे बाहर निकलकर नीचे उतरने पर लगभग आधा रास्ता पार करने पर बायीं ओर एक देरी और परब आती है। वहाँ से काफी नीचे उतने पर घेटी पाग की देरी आती है।

श्री आदीश्वर भगवान पूर्व निन्यान्वे बार गिरिराज पर यहीं से चढ़े थे। महामंत्री उदयन के पुत्र मन्त्री आंबड ने वि.सं. १२१३ में शत्रुंजय का जीर्णोद्धार करवाया तब इस पाग का निर्माण करवाया था। उसमें श्री ऋषभदेव भगवान के की चरणपादुकाएँ हैं। यहाँ दूसरी यात्रा का पहला चैत्यवंदन करना होता है।

घेटी पगला के आसपास श्री सिद्धाचल शणगार टूंक वगैरह अनेक मन्दिर है।

सिद्धाचल शणगार के मन्दिर के तलघर में २२०० वर्ष प्राचीन श्री आदीश्वर भगवान की मनोहर प्रतिमा है। वहाँ सभी जिनालयों का दर्शन करने के बाद पुन: गिरिराज पर चढ़ना होता है। ऊपर चढ़कर दादा की टूंक में पुन: पहले की भाँति श्री शान्तिनाथजी आदि  के समक्ष चार चैत्यवंदन करने होते हैं। फिर नीचे उतरने पर दो यात्रा पूर्ण होती है।

सूचना – घेटीपाग के नीचे आदपुर गाँव है वहाँ एक मन्दिर है। उसमें निन्यान्वे इंच की श्री आदिनाथ की एक बड़ी प्रतिमा है। संभव हो सके तो वहाँ दर्शन अवश्य करना चाहिये।

श्री गिरिराज की ३ प्रदक्षिणाएँ

गिरिराज की डेढ कोस, छ: कोस, बारह कोस इसप्रकार प्रदक्षिणा (परिक्रमा) की जा सकती है। बारह कोस की प्रदक्षिणा वर्तमान में बंद जैसी है।

डेढ़ कोस की प्रदक्षिणा

दादा के दर्शन कर रामपोल की खिड़की से निकलने पर दायीं ओर बाहर के भाग में सोखरी नामक पहाड़ी के समीप के मार्ग से होकर घेटी पाग जाने का रास्ता पार कर हनुमान धार के समीप एक तराई है वहाँ से चौमुखजी की टूंक की ओर चैत्यवंदन कर हनुमान धार के पास से रामपोल के द्वार से होकर गढ़ में प्रविष्ट होने पर दादा के दर्शन करने से डेढ़ गाँव की परिक्रमा पूरी होती है।

छ: कोस की प्रदक्षिणा

(यह छ: कोस का मार्ग अत्यंत ऊँचा-नीचा और लम्बा होने के कारण सावधानी से चलना पड़ता है, अन्यथा फिसल सकते हैं। फा.सु.१३ के दिन चतुर्विध संघ विशाल संख्या में छ: कोस की यात्रा करता है।) जय तलहटी से आरंभ करें तो रामपोल तक पहुँचने में ३३०३ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। जबकि रामपोल से दादा के जिनालय तक अन्य १९८ सीढ़ियाँ और हैं। कुल ३५०१ सीढ़ियाँ चढ़ने पर दादा के दर्शन होते हैं।

दादा के दर्शन और चैत्यवंदन कर रामपोल की खिड़की से निकलने पर हमारी दायीं ओर सोखरी नामक टेकरी है, उसपर देवकीजी के छह पुत्रों की देरी है।

वहाँ दर्शन कर आगे चलने पर आधे कोस की दूरी पार करने पर उलखाजल नामक स्थान आता है। यहाँ दादा के स्नात्र-प्रक्षालन का जल आता है। यहाँ बायीं ओर एक छोटी देरी में श्री आदिनाथ भगवान की चरणपादुका हैं, वहाँ दर्शन-चैत्यवंदन कर आगे जाने पर लगभग पौने कोस जितना चलने पर चिल्लण तलावड़ी (तलैया) (चंदन तलावडी) आती है। यहाँ श्री अजितनाथ भगवान और श्री शान्तिनाथ भगवान की चरणपादुकाओं की देरी है।

इन दो देरी के पास अत्यंत महिमाशाली चिल्लण (चंदन) तलावड़ी, तथा काउस्सग्ग करने हेतु सिद्धशिला है। फिर आगे दो मील चलने पर भाड़वा का पर्वत आता है, इस शिखर पर एक देरी में श्री आदीश्वर की चरणपादुकाएँ तथा शाम्ब और प्रद्युम्न की दो चरणपादुकाओं की जोड़ी, इसप्रकार तीन चरणपादुकाओं की जोड़ी प्रतिष्ठित की गई है। वहाँ चैत्यवंदन कर एक मील नीचे उतरने पर सिद्धवड (छोटी पुरानी तलहटी है।)

यहाँ वट के नीचे देरी में श्री आदिनाथ प्रभु की चरणपादुकाएँ हैं वहाँ चैत्यवंदन करना। यहाँ छ: कोस की प्रदक्षिणा पूरी होती है। अबतक तो समीपस्थ आदपुर गाँव की बाहर खेतों में यात्रियों की भक्ति करने हेतु स्थान किराये पर लेकर मंडप बांधते थे।  अब वहाँ छ: कोस की यात्रा पूरी होती है। वहाँ की विशाल भूमि पर फाल्गुन सुदी १३ के दिन पेढ़ी के अंतर्गत अलग-अलग गाँवों के संघ और श्रद्धालु भक्त, यात्रीजन भक्ति करने हेतु पाल के रूप में पहचाने जाने वाला मंडप बांधकर उसमें अनेक प्रकार की वस्तुओं द्वारा यात्री भाई-बहिनें साधर्मिकों की भक्ति करते हैं।

बारह कोस की प्रदक्षिणा

शेत्रुंजी नदी पर बांध निर्मित होने के कारण अब चोक गाँव का मार्ग बंद हो गया है, इसलिए अब बारह कोस की यात्रा करने की भावना वाले यात्रीगणों को वह यात्रा अब टुकड़ों में करनी पड़ती है।

श्रद्धालु यात्रीगण पालिताणा में दादा की यात्रा कर पालीताणा से निकलकर डेम की ओर जाते हैं। वहाँ यात्रा-दर्शन कर कदम्बगिरि पर जाते हैं, वहाँ नीचे और ऊपर जिनमंदिर में दर्शन पूजा कर वापिस पालीताणा आते हैं। फिर यहाँ से हस्तगिरि पर पुरानी चरणपादुकाएँ और नूतन जिनमंदिर के दर्शन पूजन कर वापिस लोटते समय पीछे के रास्ते पर घेटी गाँव आता है। वहाँ दर्शन वगैरह कर पालीताणा आते हैं। इसप्रकार श्री शत्रुंजय गिरिराज की प्रदक्षिणारूप बारह कोस की यात्रा होती है।

उपर्युक्त तीन यात्राओं में दादा की टूंक को केन्द्र में रखकर प्रदक्षिणा करनी पड़ती है।

भातागृह (भाताखाता)

यात्रा कर नीचे उतरने पर थके हुए यात्री जैसे ही तलहटी में पहुँचते हैं। तभी उनके लिए अल्पाहार जो भाता के नाम से प्रचलित है, वह भक्तिपूर्वक सभी यात्रियों को दिया जाता है। इसके अलावा चाय-उकाली तथा शक्कर के पानी की भी भक्ति की जाती है। सामान्यत: प्रत्येक छोटे-बड़े जैन तीर्थों में   भाता की व्यवस्था होती है। पालीताणा के भाताखाता का भी सुन्दर इतिहास है।

इस तीर्थ की यात्रा कर आने वाले थके हुए यात्री भाई-बहिनों को देखकर करुणा से प्रेरित होकर पूज्य पंन्यास-मुनि श्री कल्याणविमलजी गणी के उपदेश और प्रेरणा से कलकत्ता निवासी रावबहादुर बाबू सेठ सिताबचंदजी गुलाबचंदजी नहार (कलकत्ता) ने अपने दादा बाबू उत्तमचंदजी नहार की स्मृति में वि.सं. १८८०, मार्गशीर्ष सुदी १३ से भाता देने का आरंभ किया। प्रारम्भ में तो चने-मुरमुरे देकर भक्ति की जाती थी। बीच के समय में पराठा भी दिया जाता था। भाथा तलहटी के मंडप के आगे सती वापी है। इस वापी का शान्तिदास सेठ के भाई सूरदास के पुत्र लक्ष्मीदास ने यात्रियों को पानी सुलभ हो इसलिए वि.सं. १६५७ में निर्माण करवाया। इस वापी से कुछ दूरी पर शान्तिदास सेठ द्वारा बनवाई गई एक देरी है, जिसमें श्री गोड़ी पार्श्वनाथ की चरणपादुका है।

सती की बावड़ी के पास में वट के नीचे बैठकर यात्रीगण भोजन करते थे। आँधी में उस वटवृक्ष के गिर जाने के कारण वि.सं. १९७० में सेठ श्री लालभाई दलपतभाई की माताश्री पूज्य गंगा बा ने भाताघर हेतु कक्ष बनवाये। वि.सं. २०२६ में उस स्थान पर सुन्दर और आधुनिक सुविधायुक्त भाताभवन का निर्माण किया गया। अब तो यात्रियों के लिए भक्तिरूप में सुन्दर भाता की व्यवस्था भी आधुनिक सुविधा के साथ नये भाताभवन में की जाती है। बुंदी, मैसुर, सेव, चाय, शरबत आदि देकर भक्ति की जाती है। तपस्वियों के लिए उबले हुए पानी की व्यवस्था की जाती है। इसके साथ समय समय पर सुविधाओं में वृद्धि की जाती है।

विक्रमसंवत् -२०२६ में पेढ़ी ने भाताखाता के भवन का नवनिर्माण करवाया तथा सुविधाओं में वृद्धि की। विक्रमसंवत् २००२ में भाताखाता में बड़ी राशि को दान में देकर सहयोगी बनने वाले सेठ श्री नरोत्तमदास केशवलाल शाह (लट्ठा) परिवार के सुकृत की अनुमोदना की स्थायी स्मृतिरूप भाताखाता के नाम में श्री जनकभाई नरोत्तमदास शाह (लट्ठा) का नाम जोड़कर भाताखाता का नवीन नामकरण किया गया तथा श्री जनकभाई की अर्ध प्रतिमा भी भाताभवन में स्थापित की गई।

भाता द्वारा यात्रियों की भक्ति करने हेतु कई भाई-बहिन लाभ लेने हेतु तत्पर रहते हैं। जिसके लिए आये हुए प्रार्थना पत्रों में से ड्रो के माध्यम से विविध महानुभावों को लाभ दिया जाता है।

यह भाताखाता जिनकी स्मृति में आरंभ किया गया उन श्री बाबू उत्तमचंदजी नाहर की धर्मपत्नी श्री मयाकुंवर ने वि.सं. १९१३ ज्येष्ठ कृष्ण ११ के दिन गिरिराज शत्रुंजय पर, दादा के जिनप्रासाद की ऊपरी मंजिल पर जिनप्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई थी। इस संदर्भ में प्रतिष्ठा लेख स्व.बाबू पुरणचंदजी नाहर के “जैन लेख संग्रह” के पहले भाग में मुद्रित किया गया है।

शत्रुंजय गिरिराज पर मनाये जाने वाले महत्त्वपूर्ण पर्व

कार्तिक पूर्णिमा-

कार्तिक शुक्ला १५ के दिन चातुर्मास पूर्ण होने पर पर्वत पर जाकर दादा के दर्शन का प्रथम दिन होता है। इस दिन द्राविड और वारिखिल्ल ने अनशन कर १० करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त की थी। राजा और उसके सैनिकों की कथा इसके साथ जुड़ी हुई है। लोग अत्यंत हर्षोल्लास के साथ इस यात्रा में आते हैं।

पोष कृष्णा १३ (मेरु त्रयोदशी)

मेरु-त्रयोदशी श्री ऋषभदेव भगवान ने महा मास की कृष्णपक्ष १३ (गुजराती पोष कृष्ण १३) के दिन अष्टापद पर्वत पर मोक्ष प्राप्त की थी, उस निमित्त इस पर्व को मनाते हैं। (उसकी स्मृति में घी का मेरु बनाकर प्रभुजी के सन्मुख रखा जाता है। कई गाँवों में मेरु बनाकर रखने की परम्परा है।) इसलिए लोग आज के दिन यात्रा करते हैं। यह मेरु त्रयोदशी का पर्व है।

फाल्गुन कृष्णा ८

-श्री आदीश्वर भगवान गिरिराज पर पूर्व निन्यान्वे बार (६९८५४४००००००००००) पधारे हैं। किन्तु जब भी वे पधारे हैं तब आदित्यपुर (आदपुर) से पधारे हैं और फाल्गुन शुक्ल ८ के दिन पधारे हैं। अतएव पुण्यात्माजन जय तलहटी से गिरिराज पर आकर, दादा के दर्शन कर, वर्तमान में उस दिशा के नीचे अर्थात् वर्तमान घेटीपाग में श्री आदीश्वर भगवान की चरणपादुकाओं की देरी है, वहाँ दर्शन चैत्यवंदन कर, फिर ऊपर आते हैं और दादा की यात्रा करते हैं।

फाल्गुन शुक्ला १३

इस दिन गिरिराज की छ: कोस की प्रदक्षिणा की जाती है। प्रदक्षिणा कर आदपुर में (पुराना आदित्यपुर) पड़ाव डालते हैं वहाँ सभी यात्रीगण आते हैं।

शाम्ब तथा प्रद्युम्न ने इस दिन साडे आठ करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त की थी। इसलिए इस दिन यात्रा करने की बड़ी महिमा है। सर्वप्रथम दादा की यात्रा कर यात्रीगण भाडवा की पहाड़ी पर जाते हैं। वहाँ शाम्ब प्रद्युम्न की देरी स्थित हैं। वहाँ चैत्यवंदन कर नीचे उतरना प्रारम्भ करते हैं। अर्थात् धीरे धीरे सिद्धवड की ओर आते हैं. वहाँ देरी में दादा की चरणपादुकाएँ हैं, वहाँ भी दर्शन-चैत्यवंदन कर पाल के नाम से प्रसिद्ध पड़ाव में जाते हैं। इस प्रदक्षिणा का मार्ग बड़ा कठिन है, परन्तु जो एकबार यात्रा कर लेता है उसका पुन: यात्रा करने का मन होता है, ऐसा मार्ग है। लगभग ९० से १०० जितने पड़ाव-पाल में अलग अलग गाँव के संघ तथा भिन्न भिन्न संस्थाओं और मंडलों के पाल होते हैं। पेढी का पड़ाव-पाल भी वहाँ होता है। इसकी व्यवस्था आणंदजी कल्याणजी पेढी करती है। तथा अन्य पुण्यात्मा लोग भी लाभ लेते हैं। वह मेला देखने योग्य है।  हजारों की संख्या में लोग भक्ति-भावना से यात्रा करते हैं। प्रत्येक वर्ष इस दिन यात्रा हेतु आने वाले हजारों यात्री भाई-बहिनों की साधर्मिक भक्ति पाल में की जाती है। यहाँ की सामान्य जनता भी इस दिन को ढेबरीया मेले के नाम से जानती है।

फाल्गुन कृष्णा ८

इस दिन श्री शत्रुंजय तीर्थ पर मूलनायक श्री आदीश्वर दादा की प्रतिमा तथा अन्य जिन प्रतिमाओं का अठारह अभिषेक विधि सहित होता है। इस दिन आदीश्वर भगवान का जन्म तथा दीक्षा कल्याणक होता है। इस दिन छठ अर्थात् दो निरंतर उपवास कर वर्षीतप का आरंभ किया जाता है।

चैत्र पूर्णिमा –

चैत्र शुक्ला १५ को श्री आदीश्वर भगवान के गणधर श्री पुण्डरीक स्वामी ने ‘इस गिरि पर स्वयं को और उनके शिष्यों को मुक्ति प्राप्त होगी’ इसप्रकार भगवान की वाणी सुनकर यहाँ निवास किया और आराधना की। आराधना करते हुए अनशन कर चैत्र पूर्णिमा के दिन पाँच करोड़ मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त की। जिससे गिरिराज की महिमा बड़ गई, और पुण्डरीक गिरि ऐसा नाम भी प्रचलित हुआ। अत: चैत्र पूर्णिमा के दिन की बड़ी महिमा है, और गाँव-शहर-देश-विदेश से (वर्तमान में) लोग यहाँ यात्रा करने हेतु आते हैं। १०-२०-३०-४०-५० पुष्पों की माला वगैरह अर्पित करते हैं, साथ ही अन्य किसान आदि स्थानीय लोग भी इस दिन श्री गिरिराज पर आते हैं। यात्रा का लाभ लेते हैं। रास-गरबा खेलते हैं और आनंद का अनुभव करते हैं। इसप्रकार चैत्र पूर्णिमा का पर्व मनाते हैं।

वैशाख शुक्ला-३ (अक्षय तृतीया)

प्रथम तीर्थंकर परमात्मा ऋषभदेव ने फाल्गुन कृष्णपक्ष ६ के दिन दीक्षा लेने के पश्चात् वैशाख शुक्ला २ तक तेरह महीने की दीर्घ अवधि तक निर्जल उपवास करने के पश्चात् आज के दिन हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस के हाथ से ईक्षुरस ग्रहण कर प्रथम पारणा किया था। उसे वर्षी तप कहते हैं। उत्तमभावना, उत्तमद्रव्य, उत्कृष्ट पात्र इन सभी से कारण यह तप पवित्र माना जाता है।

भारत में ही नहीं अपितु दुनिया में जगह जगह पर लोग बड़ी संख्या में यह तप करते हैं।

अक्षय तृतीया के दिन शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा के साथ दादा के दर्शन-स्तवन और पूजन कर वर्षी तप का पारणा करने की भावना लेकर पूज्य तपस्वी साधु-साध्वीजी महाराज तथा सैंकड़ों तपस्वी भाई-बहिन अपने परिजनों के साथ यहाँ आते हैं। तलहटी के समीप आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी द्वारा नवनिर्मित पारणा भवन में सभी तपस्वियों को आदर सन्मान और भक्ति के साथ ईक्षुरस से पारणा करवाया जाता है। कई बार लगभग लाखों यात्रीगणों से भरे इस दिन को देखना बड़ा रोमांचकारी होता है।

वैशाख कृष्णपक्ष ६ मूलनायक भगवान का प्रतिष्ठा उत्सव (वर्षगाँठ)

श्री पवित्र शत्रुंजय पर मूलनायक श्री आदीश्वर दादा के जिनालय की वर्षगाँठ वैशाख कृष्ण ६ (षष्ठी) (वि.सं. १५८७) के दिन होती है। मूलनायक दादा की प्रतिमा प्रतिष्ठा की पुण्य स्मृति निमित्त जिनालय की वर्षगाँठ वैशाख कृष्ण ६ के दिन मनाते हैं। जिसमें आदीश्वर दादा के जिनालय के उत्तंग शिखर पर नवीन ध्वजारोहण किया जाता है। इस दिन मानों तीर्थ की वर्षगाँठ हो इसप्रकार बड़े उल्लास और उमंग के साथ यह पर्व मनाया जाता है।

आषाढ़ शुक्ला १४

(आषाढ़-चातुर्मास चतुर्दशी) श्रद्धालु गिरिराज की उत्साहित होकर यात्रा करते हैं। वर्ष में एकबार तो गिरिराज की यात्रा अवश्य करनी चाहिये। इसलिए जिसकी यात्रा शेष रह गई हो वह भी अंतत: आषाढ़ शुक्ला १४ के दिन यात्रा पूरी कर लेता है। क्योंकि पूर्वाचार्यों ने विराधनादि कारणों पर विचार कर आषाढ़ चातुर्मास १४ के पश्चात् गिरिराज की यात्रा का निषेध किया है, उसका पालन श्री संघ करता है। अतएव गिरिराज की वर्ष में की जाने वाली यात्रा पूर्ण करने हेतु पुण्यात्मा जन इस गिरिराज पर आषाढ़ चातुर्मास की यात्रा करने आते हैं।

इसप्रकार वर्ष में इतने मुख्य पर्व आते हैं। अन्यथा यात्रा तो सदैव आठ महीने तक चलती ही रहती है।

गिरिराज को स्पर्श करने वाले आषाढ़ महीने से लेकर कार्तिक १४ तक पालीताणा में आकर धर्मशाला में चातुर्मास की धर्म-आराधना कर कृतार्थ होते हैं, किन्तु पर्वत पर नहीं चढ़ते।

शत्रुंजय गिरिराज पर मोक्ष प्राप्त करनेवाले पुण्यात्मा

मनुष्यलोक में प्रत्येक स्थान से जितने अनंतजीवों ने मोक्ष प्राप्त की है उससे अनंतगुना जीवों ने शत्रुंजय तीर्थ के प्रत्येक क्षेत्र से मोक्ष प्राप्त की है। मनुष्यलोक में शत्रुंजय के अलावा अन्यत्र एकसाथ एक दो या तीन जितनी अल्प संख्या में जीवों ने मोक्ष प्राप्त की है, जबकि शत्रुंजय गिरिराज पर एकसाथ करोड़ो की संख्या में जीवों ने मोक्ष प्राप्त की है।

पाँच पाण्डव २० करोड़ मुनि के साथ मोक्ष प्राप्त की है।
आदिनाथ तीर्थ में
अजीतसेनमुनि १७
बाहुबली के पुत्र सोमयशा १३
द्राविड वारिखिल्लजी १०
शाम्ब-प्रद्युम्न ८.५
पुण्डरीक गणधर
भरतमुनि
राम-भरत
नमि-विनमि
शान्तिनाथ जिन के साधु १,५२,५५,७७७
कदम्बगणधर
सारमुनि
सागरमुनि
नारदमुनि ९१,००,०००
आदित्यशा (भरत चक्रवर्ती के पुत्र) १,००,०००
वसुदेव की स्त्रियाँ ३५,०००
दमितारिमुनि १४,०००
अजितजिन के साधु १०,०००
श्री नंदिषेणसूरि ७,०००
वैदर्भी ४,४००
बाहुबलि १,००८
थावच्चापुत्र १,०००
संप्रतिजिन के थावच्चा गणधर १,०००
शुकपरिव्राजक (शुक्रसूरि) १,०००
कालिकमुनि १,०००
भरत चक्रवर्ती १,०००
सुभद्रमुनि ७००
शैलकाचार्य ५००

शत्रुंजय उद्धार

ऐतिहासिक युग के पहले (प्रागैतिहासिक समय में) शत्रुंजय के निम्नोक्त बारह उद्धार हुए हैं।

उद्धार-१ भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी के शासन में श्री भरत चक्रवर्ती ने किया।

उद्धार-२ सौधर्म इन्द्र की प्रेरणा से श्री भरत चक्रवर्ती के वंश में हुए आठवें राजा श्री दंडवीर्य ने किया।

उद्धार-३ श्री तीर्थंकर देव के उपदेश से ईशान इन्द्र ने (दंडवीर्य के पश्चात् सौ सागरोपम जितना समय व्यतीत होने के पश्चात् किया।

उद्धार-४ तीसरे उद्धार के पश्चात् करोड़ सागरोपम काल पश्चात् महेन्द्र ने किया।

उद्धार-५ चौथे उद्धार के पश्चात् दस करोड़ सागरोपम काल पश्चात् पाँचवे देवलोक के इन्द्र ने किया।

उद्धार-६ पाँचवें उद्धार के पश्चात् लाख करोड़ सागरोपम काल बाद भवन निकाय के इन्द्रों ने किया।

उद्धार-७ श्री अजितनाथ भगवान के शासन में सगर चक्रवर्ती ने किया।

उद्धार-८ श्री अभिनंदनस्वामी के शासन में व्यन्तरेन्द्रों ने किया।

उद्धार-९ श्री चन्द्रप्रभु के शासन में चंद्रयशा राजा ने किया।

उद्धार-१० श्री शान्तिनाथ भगवान के शासन में चक्रधर राजा ने किया।

उद्धार-११ श्री मुनिसुव्रतस्वामी के शासन में, अपने लघु बंधु श्री लक्ष्मण के साथ श्री रामचन्द्रजी ने किया।

उद्धार-१२ श्री अरिष्टनेमिनाथ के शासन में पाँच पाण्डवों ने किया।

ऐतिहासिक युग में हुए चार उद्धारों की सूचि इस प्रकार है।

  • श्री महावीरदेव के शासन में वि.सं. १०८ वर्ष में मधुमती निवासी जावड़ श्रेष्ठी ने आचार्यश्री वज्रस्वामी के सानिध्य में किया। (तेरहवाँ उद्धार)
  • वि.सं. १२११ में (मतांतर से सं. १२१३ में) उदयनमंत्री के पुत्र बाहडमंत्री ने कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य के सानिध्य में किया। (चौदहवाँ उद्धार)
  • पाटण के श्रेष्ठी देशलशा के पुत्र समरसिंह ने (समरशा ने) वि.सं. १३७१ में, आचार्यश्री सिद्धसूरि की निश्रा में किया। (पंद्रहवाँ उद्धार)
  • वि.सं. १५८७ महान मंत्रविद्या विशारद आचार्य भगवंत श्री विद्यामंडनसूरिजी के सानिध्य में चित्तोड़गढ़ के मंत्री स्वनाम धन्य करमशा ने किया।

तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय के संदर्भ में साहित्य

शत्रुंजय सौरभ अर्थात् श्री जिन तीर्थ दर्शन।

प्रका. श्री. शा. जयन्तिलाल प्रभुदास, सं. २०१५ (वीर संवत् २४८५)।

शत्रुंजय स्तवन – साधु कीर्ति ।

शत्रुंजय स्तवना – आदिनाथ विनतिरूप – कर्ता : श्री प्रेमविजयजी (१७वीं शताब्दी).

समारारासुत – कर्ता: श्री आम्बदेवसूरि (देवसूरि), वि.सं. १३११.

सित्तुंजकप्पो – कर्ता : श्री धर्मघोषसूरि, टीकाकार पं. श्री शुभशील गणी, टीका सं.१५१८.

सिद्धगिरिराज यात्राविधि – प्र. श्री वोरा मुलजीभाई, सं. १९९९.

सिद्धाचल गिरनार संघ – कर्ता : पं. श्री वीरविजयजी, सं. १९०५.

सिद्धाचल का वर्तमान वर्णन –  ले. श्री गुलाबचंद शामजी कोरडीया, सं. १९७२.

आत्मरंजन गिरिराज शत्रुंजय – प्र. नेमचंद जी. शाह, सं. २०३१.

ऋषभदेवचरित – कर्ता : श्री वर्धमानसूरि, सं. ११६०.

ऋषभपंचाशिका – कवि धनपाल (११वीं शताब्दी)।

ऋषभरास – कर्ता : श्री गुणरत्नसूरि, सं. लगभग १५००.

ऋषभशतक – कर्ता : श्री हेमविजयजी, सं. १६५६.

ऋषभस्तवन – कर्ता : श्री संघविजयजी, सं. १६७०.

कल्याणसागरसूरि के शिष्य १०८ दूहा।

जय शत्रुंजय – ले. श्री सांकलचंद शाह, सं. २०२६ के पश्चात्।

तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय (टूंक परिचय) – ले. श्री मधुसूदन ढांकी, सं. २०३१.

तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय पर थयेल प्रतिष्ठानो अहेवाल – ले. रतिलाल दीपचंद देसाई, सं.२०३४.

तीर्थाधिराज श्री शत्रुंजययात्रा माहात्म्य – प्र. श्री जैनानंद प्रेस, सं. २०२७.

नवाणु अभिषेक पूजा – कर्ता : पं. श्री पद्मविजयजी, सं. १५८१.

नवाणुप्रकारी पूजा – कर्ता : पं. श्री वीरविजयजी, सं.१८८४.

नाभिनंदनजिनोद्धारप्रबंध – कर्ता : श्री कक्कसूरि, सं.१३९३.

विमलाचलस्तवन – कर्ता : श्री क्षेमकुशल, सं. १७७२ से पूर्व।

विरविजयजी कृत दुहा, लगभघ १९ वीं शताब्दी के अंतीम भाग में।

Shatrunjaya and Its Temples – James Burgess, A. d.1869.

शत्रुंजय उद्धार रास – कवि श्री नयसुंदर, सं. १६३८.

शत्रुंजय कल्पकथा – कर्ता : पं. शुभशील गणि, सं. १५१८.

शत्रुंजय गिरिराज दर्शन – ले. पं. श्री कंचनसागरजी, सं. २०३६.

शत्रुंजय गिरिराज स्तवनादि-संग्रह – सं. पं. श्री कनकविजयजी

शत्रुंजय गिरिराज स्पर्शना – ले. मुनि श्री नित्यानंदविजयजी, सं. २०३२.

शत्रुंजय चैत्य परिपाटी – श्री जयसोमशिष्य (हस्तलिखित)

शत्रुंजय चैत्य परिपाटी (प्रवाडी) – कवि खीमो।

शत्रुंजय (तीर्थ) चैत्य प्रवाडी – श्री सोमप्रभ गणि (हस्तलिखित)

शत्रुंजयतीर्थकल्प (विविध तीर्थकल्प अंतर्गत) – कर्ता : श्री जिनप्रभसूरिजी, सं. १३८५.

शत्रुंजय तीर्थ दर्शन – ले. श्री फूलचंद ह. दोशी, सं. २००२.

शत्रुंजय तीर्थ परिपाटी – कर्ता : श्री देवचंद्रजी, सं. १६९५.

शत्रुंजय तीर्थमाला – कर्ता : पं. श्री अमृतविजयजी, सं. १८४०.

शत्रुंजय तीर्थमाला – कर्ता : श्री विनीतकुशल, सं. १७७२.

शत्रुंजय तीर्थमाला रास उद्धारादिक संग्रह – पं. निर्णयसागर प्रेस।

शत्रुंजय तीर्थरास – कर्ता : श्री जिनहर्ष गणि, सं. १७५५.

शत्रुंजय तीर्थोद्धार प्रबंध – कर्ता : श्री विवेकधीर गणि, सं. १५८७.

शत्रुंजय तीर्थोद्धार रास – कर्ता : समयसुंदर गणि. सं. १६८६.

शत्रुंजय तीर्थोद्धार संग्रह – सं. श्री साराभाई मणिलाल नवाब, सं. २०००.

शत्रुंजय दिग्दर्शन – ले. श्री दीपविजयजी, सं. २००३.

शत्रुंजय द्वात्रिंशिका (बत्रीशी) – कर्ता : आ. जयशेखरसूरि.

शत्रुंजयनी गौरवगाथा – कर्ता : पं. श्री सद्गुणविजयजी, सं. २०३५.

शत्रुंजयनो वर्तमान उद्धार – प्र. जैन आत्मानंद सभा, सं. १९९२.

शत्रुंजय परिपाटी कर्ता : श्री गुणचंद्र, सं. १७६९.

शत्रुंजय पर्वतनुं वर्णन.

शत्रुंजय प्रकाश अने जैन विरुद्ध पालीताणा भाग-१ अने भाग-२

ले. श्री देवचंद दामजी कुंडलाकर, ‘जैन’ कार्यालय भावनगर, सं. १९८५.

शत्रुंजय महातीर्थ गुणमाला – सं. श्री महिमाविजयजी, सं. २००९.

शत्रुंजय महातीर्थ महात्म्यसार – प्र. विद्याशाला, अहमदाबाद।

शत्रुंजय महातीर्थादि यात्रा विचार अने चैत्यवंदन स्तुति स्तवनादि संग्रह – वि.सं. श्री कपूरविजयजी महाराज, सं. १९७०.

शत्रुंजयमंडन आदिनाथ स्तवन – कर्ता : श्री समरचंद्र, सं. १६०८.

शत्रुंजय महात्म्य – कर्ता : श्री धनेश्वरसूरिजी, सं. ४७७.

शत्रुंजय महात्म्य – गुजराती (हस्तलिखित)।

शत्रुंजय महात्म्य रास – कर्ता : श्री सहजकीर्ति, सं. १६८४.

शत्रुंजय माहात्मयोल्लेख – कर्ता : श्री हंसरत्न गणि, सं. १७८२.

शत्रुंजय लघु कल्प – (सारावली पयन्ना की गाथा रूप में),  पूर्वश्रुतधर प्रणीत।

शांतिदास अने वखतचंद शेठनो रास – कर्ता : श्री क्षेमवर्द्धन, सं. १८७०.

सुकृतकीर्ति कल्लोलिनी – कर्ता : श्री उदयप्रभसूरी

हिन्दुस्ताननां जैन तीर्थो – सं. श्री साराभाई मणिलाल नवाब, सं. २०००.

निम्नोक्त ग्रंथों में से भी श्री शत्रुंजय महातीर्थ सम्बन्धित वर्णन तथा प्रशस्ति मिलती है।

कुमारपालचरित – कर्ता : श्री सोमतिलकसूरि, सं. १४२४.

कुमारपालचरित (प्राकृत) – कर्ता : श्री हरिश्चंद्र

कुमारपालचरित्र – कर्ता : श्री जयसिंहसूरि, सं. १४२२.

कुमारपालप्रतिबोध – कर्ता : श्री सोमप्रभाचार्य, सं. १२४१.

कुमारपालप्रतिबोधप्रबंध – कर्ता : अज्ञात, सं. १४१५.

कुमारपालप्रबंध – कर्ता : श्री जिनमंडन, सं. १४९२.

कुमारपालरास – कवि श्री ऋषभदास, सं. १६७०.

कुमारपालरास (चरित्र) – कर्ता : श्री जिनहर्ष, सं. १४४२.

कुमारपालरास – कर्ता : श्री देवप्रभ गणि, सं. १५४० से पूर्व।

कुमारपालरास – कर्ता : श्री हीरकुशल, सं. १६४०.

चतुर्विशतिप्रबंध – कर्ता : श्री रत्नशेखरसूरि, सं. १४०५.

जैन तीर्थ सर्व संग्रह – प्र. शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी, सं. २०१०.

धर्माभ्युदय काव्य अपरनाम संघपति चरित्र – कर्ता : श्री उदयप्रभसूरि, वि.सं. १२७९-८० के आसपास।

प्रबंधचिंतामणि – कर्ता : श्री मेरुतुंगसूरि, सं. १३६१.

प्रभावकचरित – कर्ता : श्री प्रभाचंद्रसूरि, सं. १३६४.

प्राचीन लेख संग्रह भाग-२ – सं. श्री जिनविजयजी, सं. १९७८.

वस्तुपालचरित – कर्ता : श्री जिनहर्ष, सं. १७९३.

यह सूचि रचना संवत् के कालक्रमानुसार तैयार करने के स्थान पर अकारादि क्रम से बनाई गई है, और उसमें ‘श्री’ को ध्यान में लिए बिना वर्णक्रम व्यवस्था की गई है। जाँच करने पर जितनी कृतियों का रचनासंवत् ज्ञात हुआ है उसका निर्देश भी उसी कृति के साथ किया गया है; कुछ कृतियाँ ऐसी हैं कि जिनका रचनासंवत् ज्ञात नहीं हुआ है।

वर्षगाँठ

श्री पवित्र शत्रुंजय गिरिराज पर मूलनायक श्री आदीश्वर दादा की प्रतिमा की प्रतिष्ठा संवत् १५८७ के वैशाख मास की कृष्णपक्ष ६ (षष्ठी) के दिन की गई थी।

अत: उस दिन से प्रतिवर्ष श्री आदीश्वर दादा के जिनालय पर नवीन ध्वजा चढ़ाई जाती है।

विविध प्रसंग

श्री शत्रुजंय तीर्थ पालीताणा में प्रतिवर्ष लगभग ६ लाख जितने जैन एवं अन्य यात्रीगण यात्रा करने आते हैं। प्रतिवर्ष निम्नोक्त प्रसंग-उत्सवों का आयोजन होता है।

बड़ी यात्रा के दिन

(१)कार्तिक शुक्लपक्ष -१५ (२) चैत्र शुक्लपक्ष -१५ (३) आषाढ़ शुक्लपक्ष -१४

इन दिनों में २५ से ५० हजार जितने यात्रीगण पधारते हैं।

उत्सव

(१)फाल्गुन शुक्लपक्ष -१३ श्री शत्रुंजय तीर्थ-सिद्धाचलजी की छ: कोस की यात्रा

इस दिन पर लगभग एक लाख से भी अधिक यात्रीगण इस तीर्थ में आते हैं। छ: कोस की यात्रा का आरंभ श्री शत्रुंजय तीर्थ की तलहटी से प्रारम्भ होकर गिरिराज पर श्री आदीश्वर दादा की बड़ी टूंक में दर्शन कर वहाँ से श्री शत्रुंजय तीर्थ की प्रदक्षिणा कर भाड़वा के पर्वत की यात्रा कर घेटीपाग (घेटीगाँव) होकर आदिपुर गाँव जहाँ पर श्री आदीश्वर दादा की चरणपादुकाओं की देरी है वहाँ पूरी होती है। यात्रा पूरी होने वाले स्थल पर शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढी की ओर से प्रत्येकवर्ष बनाये जान वाले मण्डप में पेढी की ओर से तथा भिन्न-भिन्न गाँव-नगरों के जैनसंघों की ओर से दही-थेपले-बूँदी-गाँठीयाँ-मैसुर-दूध-शर्बत आदि निशुल्क देकर भक्ति की जाती है।

(२)चैत्र कृष्णपक्ष ८ (गुजराती फाल्गुन कृष्णपक्ष ८)

आज के दिन आदीश्वर भगवान का जन्म तथा दीक्षा, दो कल्याणक का दिन होने के कारण, पवित्र शत्रुंजय गिरिराज पर आदीश्वर दादा तथा अन्य जिनबिम्बों पर अठारह अभिषेक की विधि होती है। विशाल संख्या में श्रद्धावान भक्त इस प्रसंग पर उपस्थित होकर लाभ लेते हैं। प्रभु के दीक्षा तप के प्रतिकरूप में अनकों पूज्य साधु-साध्वीजी महाराज, हजारों की संख्या में श्रावक-श्राविकाएँ वर्षीतप की आराधना का मंगल प्रारम्भ छठ (निरंतर दो उपवास) का पच्चक्खाण लेकर करते हैं।

(३)फाल्गुन कृष्णपक्ष -८

इस दिन श्री शत्रुंजय तीर्थ पर आदीश्वर दादा तथा अन्य जिन प्रतिमाओं पर अठारह अभिषेक की विधि होती है।

(४)वैशाख शुक्लपक्ष ३ (अक्षय तृतीया)

इस पवित्र दिन पर वर्षीतप के तपस्वी लोग पारणा करने हेतु पालीताणा में अपने परिजनों के साथ आते हैं। वर्षीतप की तपश्चर्या में एक दिन निराहार उपवास और एक दिन बियासणा (दो समय भोजन) इसप्रकार पूरे वर्ष तप करना होता है। इस दिन तपस्वीजन श्री शत्रुंजय तीर्थ पर जाकर आदीश्वर दादा की इक्षुरस (गन्ने का रस) से प्रक्षालपूजा का लाभ लेकर पालीताणा तलहटी स्थित पारणा भवन में पारणा करते हैं। इस दिन लगभग १लाख जितने यात्रीगण पालीताणा आते हैं। पारणो की व्यवस्था तलहटी स्थित पारणा भवन में शेठ आणंदजी कल्याणजी पेढ़ी द्वारा की जाती है।

समय पत्रक

श्री पवित्र शत्रुंजय तीर्थ पर बड़ी टूंक (मुख्य टूंक) में पूज्य श्री आदीश्वर दादा (ऋषभदेव) के जिनालय में दादा की प्रक्षालपूजा आरती के समय में ऋतुओं के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। जो निम्नानुसार है :

विषय कार्तिक शु.पूर्णिमा से महा कृ. अमावस्या फाल्गुन शु. प्रतिपदा से महा कृ. अमावस्या वैशाख शु. प्रतिपदा से आषाढ़ शु. चतुर्दशी
रामपोल द्वार खोलने का समय सूर्योदय सूर्योदय सूर्योदय
आंगी के दर्शन प्रात: ९.३० तक प्रात: ९.०० तक प्रात: ८.३० तक
पू.आदीश्वर दादा की प्रक्षालन पूजा प्रात: ९.५० प्रात: ९.२० प्रात: ८.५०
पू. आदीश्वर दादा की केसर पूजा प्रात: १०.५० प्रात: १०.२० प्रात: ९.५०
पू. आदीश्वरदादा की पुष्प पूजा प्रात: ११.०० प्रात: १०-३० प्रात: १०.००
पू. आदीश्वर दादा की मुकुट पूजा प्रात: ११.०० प्रात: १०.४० प्रात: १०.१०
आरती-मंगलदीप (प्रात:) प्रात: ११.२० प्रात: १०.५० प्रात: १०.२०
पंक्ति में पूजा प्रारम्भ प्रात: ११.२० प्रात: १०.५० प्रात: १०.२०
पू. दादाजी को आंगी(वस्त्र) पहनाना सायं ३.३० सायं ४.०० सायं ४.००
आरती-मंगलदीप सायं ४.०० सायं ४.३० सायं ४.३०
रामपोल द्वार खोलने का समय सूर्योदय सूर्योदय सूर्योदय
रामपोल द्वार बंद करने का समय सायं ५.०० सायं ५.३० सायं ५.३०

योजनाओं

पालीताणा गिरिराज पर पू. दादाजी की आंगी

क्रमांक योजना विवरण राशि नाम कहाँ लिखवाने हैं
१. पू. दादाजी की बिना मिति के (कार्तिक शु.-१५, चैत्र-१५) गाँव के जिनालयों में प्रत्येक कल्याणक निमित्त वर्षगाँठ वि. आंगी १०,०००/- या उससे अधिक राशि किसी स्थान पर नाम नहीं आयेगा।
२. पू.दादाजी की एक दिन की यात्री आंगी ड्रो द्वारा प्राप्त करने के लिए (सोने के वर्क की) प्रतिवर्ष राशि निर्धारण अनुसार अर्जीपत्र गुजराती महीने कार्तिक से आषाढ़ शु.-१३ तक देना होगा। आंगी के लिए संपर्क : टे.नं.-०२८४८-२५०४८

पालिताना तीर्थ में दान योजना

क्रमांक योजना विवरण निर्धारित कोर्पसरु. तख्ती की टूंक विवरण/ नाम किस स्थान पर लिखे जायेंगे
१. सर्व साधारण २.००” के अक्षर १,०८,००,०००/- प्रमुख लाभार्थी गिरिराज पर सगालकुंड के आगे ऑफीस के बगल में ६० अक्षर की सीमा में पू. गुरु भगवंत का नाम लिखा जायेगा। राशि कोपर्स खाते में जमा रखकर व्याज खर्च किया जायेगा। व्याज पेढ़ी अंतर्गत सभी तीर्थों मे खर्च किया जायेगा। राशि चेक द्वारा स्वीकार होगी।
सर्व साधारण १.५” के अक्षर ५१,००,०००/- मुख्य लाभार्थी
सर्व साधारण ०१” के अक्षर २१,००,०००/- सहयोगी लाभार्थी
२. देरासर साधारण –  ४५” १.५” १,११,१११/- गिरिराज पर सगालपोल द्वार के बाहर घेटीपाग जाने वाले मार्ग के बायीं ओर दीवार पर मारबल की तख्ती में नाम लिखा जायेगा, तथा उपदेशक के रूप में महाराज साहब के साथ कुल ४१ अक्षर की सीमा में लिखा जायेगा। राशि कोपर्स खाते में जमा रखकर व्याज खर्च किया जायेगा। राशि चेक द्वारा स्वीकार होगी।
३. सर्व साधारण ४५” १.५” १,११,१११/- गिरिराज पर सगालपोल द्वार के बाहर घेटीपाग जाने वाले मार्ग के बायीं ओर दीवार पर मारबल की तख्ती में नाम लिखा जायेगा, तथा उपदेशक के रूप में महाराज साहब के साथ कुल ४१ अक्षर की सीमा में लिखा जायेगा। राशि कोपर्स खाते में जमा कर व्याज खर्च किया जायेगा। राशि चेक द्वारा स्वीकार होगी।
४. फाल्गुन शु. १३ के दिन भाता तथा उस दिन का अन्य खर्च ५०,०००/- सिद्धवट आदपुर में पेढ़ी के भाते के पाल में मारबल की तख्ती में नाम लिखा जायेगा, राशि कोपर्स खाते में जमा रखकर व्याज खर्च किया जायेगा।
५. गाँव के बड़े जिनालय १,०००/- जो तिथि खाली होगी उसमें मिलेगा। (एक तिथि में अधिकतम १० नाम लिखे जायेंगे) तिथि के दिन बोर्ड पर जिनालय में नाम लिखे जायेंगे। राशि कोपर्स खाते में जमा रखकर व्याज खर्च किया जायेगा।
गोजीडी जिनालय १,०००/-
जसकुँवर जिनालय १,०००/-
गाँव के बड़े जिनालय  २१.०००/- बड़े जिनालय के परिसर में मारबल की तख्ती में ४१ अक्षर की सीमा में लिखा जायेगा। (राशि कोपर्स खाते में जमा रखकर व्याज खर्च किया जायेगा।)
(सर्व साधारण) ११,०००/-
७. स्वर्ण महोत्सव सर्वसाधारण फंड पु. दादा के जिनालय का ५०० वाँ वर्षगाँठ प्रसंग (संवत्:- २०८७ वैशाख कृ.६, दि. १२-०५-२०३१ ५४००/- यह राशि शाखा में किसी भी पेढ़ी अथवा htpps//anandji kalyanjipedhi.org पर ऑनलाइन जमा की जा सकेगी।

पालीताणा जय तलहटी की आंगी – महापूजा

क्रमांक योजना विवरण राशि नाम कहाँ लिखे जायेंगे
१. जय तलहटी में आंगी प्रथम आगमन अनुसार यात्री आंगी लिखी जाती है। प्रत्येक वर्ष राशि निर्धारण अनुसार जय तलहटी में बोर्ड पर नाम लिखे जायेंगे। बारह महीने की आंगी लिखी जायेगी। संपर्क हेतु टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८
२. जय तलहटी में महापूजा प्रथम आगमन अनुसार लिखी जाती है। प्रत्येक वर्ष राशि निर्धारण अनुसार  संपर्क हेतु टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८
३. जय तलहटी में स्नात्र/पूजा प्रथम आगमन अनुसार लिखी जाती है। प्रत्येक वर्ष राशि निर्धारण अनुसार  संपर्क हेतु टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८

पालीताणा गिरिराज पर रंगमंडप में पूजा

क्रमांक योजना विवरण राशि नाम कहाँ लिखे जायेंगे
१. गिरि. के ऊपर पू. दादाजी के रंगमंडप में पूजा (यात्री) प्रथम आगमन अनुसार लिखी जाती है। प्रत्येक वर्ष राशि निर्धारण अनुसार गिरिराज  के ऊपर बोर्ड में नाम लिखा जायेगा। गुजराती महीने कार्तिक से आषाढ़ शु.१३ तक अर्जी देनी होगी। आंगी के लिए संपर्क हेतु टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८
२. गिरी. के ऊपर पू. दादाजी के जिनालय के चारों ओर रथयात्रा निकालने हेतु जो रथ, बग्गी, इन्द्र ध्वजा वगैरह रथस्थान से बाहर निकालने के लिए राशि प्रथम आगमन अनुसार लिखी जाती है।(रथयात्रा में घी की बोली लगवायी जायेगी।) प्रत्येक वर्ष राशि निर्धारण अनुसार किसी स्थान पर नाम नहीं आयेगा। गुजराती महीने कार्तिक से आषाढ़ शु.१३ तक रथयात्रा रहेगी। रथयात्रा के लिए संपर्क हेतु टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८

पालीताणा भाताघर में भाता/चाय/उकाला/शक्कर का पानी

१. भाताघर में भाता (यात्री भाता) भाता के उस दिन का संपूर्ण खर्च लाभार्थी परिवार को देना होगा। गुजराती महीने कार्तिक से आषाढ़ शु.१३ तक करनी होगी। भाता के लिए संपर्क हेतु टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८. जितनी अर्जी आयेगी ड्रो के माध्यम से नाम आयेगा। नियम अनुसार राशि चेक द्वारा देनी होगी। (भाता का जो खर्च होगा वह पूरा भरना होगा)
भाताघर में चाय/उकाला (यात्रियों हेतु चाय उकाला) चाय/ उकाला का उस दिन का जो खर्च होगा वह लाभार्थी परिवार को भरना होगा। प्रथम आगमन अनुसार जो तिथि खाली होगी वह आवंटित की जायेगी। (कार्तिक से आषाढ़ शु.१३ तक करनी होगी।) चाय के लिए संपर्क करें। (चाय और उकाले का जो खर्च होगा वह पूरा भरना होगा।) टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८. नियम अनुसार राशि चेक द्वारा देनी होगी।
३. भाताघर में शक्कर का पानी (यात्रियों हेतु शक्कर का पानी) प्रत्येक वर्ष राशि निर्धारण अनुसार प्रथम आगमन अनुसार जो तिथि खाली होगी वह आवंटित की जायेगी। (कार्तिक से आषाढ़ शु.१३ तक करनी होगी।) चाय हेतु संपर्क करें टे.नं. – ०२८४८-२५३३४८. नियम अनुसार राशि चेक द्वारा देनी होगी।

समीप के तीर्थस्थल

पालीताणा के समीपस्थ तीर्थ स्थल

श्री शत्रुंजय तीर्थ पालीताणा के आस-पास निम्नोक्त जैन यात्रास्थल स्थित हैं :

पालीताणा तीर्थ – संपर्क

शेठ आणंदजी कल्याणजी, रजनी शान्ति मार्ग, पालीताणा-३६४२७०.
ऑफीस ०२८४८-२५३६५६/०२८४८-२५२१४८
फेक्स- श्री मेनेजर साहब ०२८४८-२४३३४८
भाताघर (तलहटी) ०२८४८-२५२५८१
पाँच बंगला धर्मशाला (तलहटी) ०२८४८-२५२४७६
पूछताछ केन्द्र (तलहटी) ०२८४८-२५३३४८
श्री मेनेजर साहब (मोबाईल)
सहायक मेनेजर (मोबाईल) ९४०९६९८३७२
गिरिराज (पर्वत के ऊपर) ७०६९००६५३०
गिरिराज-इन्सपेक्टर (मो.) ८७८०८७३२८२